ज़िंदगी की वाटिका में जो हुए सुरभित निशा दिन
वे सभी पल मित्रता की गंध में भीगे हुए हैं
कर समन्वय नित्य ही सौहार्द्र के स्वर्णिम क्षणों से
जोड़ते है तार अपने मुस्कुराती वीथियों से
बांधते हैं डोरियाँ नव सोच की बुन कर निरंतर
तोड कर सम्बन्ध जर्जर रूढिवाली रीतियों से
बन गए थाती संजोई जो नहीं अक्षुण्ण होती
चाहे घट अनगिन निधी के शेष हो रीते हुए हैं
जो जुड़े संदीपनी आकाश की परछाईयों में
सूर्या अंशित से जुड़े कुरुराज के सम्बन्ध गहरे
पार्थ से जुड़ कर सहज वल्गायें थामी उंगलियों में
और किष्किन्धाओं पर जुड़ कर स्वत: ही पाँव ठहरे
इन सुगम अनुभूतियों की जब छलकतीं हैं सुधायें
याद के पुलकित हुयें पल अब उन्हें पीते हुये हैं
मोड़ पर आ ज़िन्दगी के दृष्टि मुड़ कर देखती है
सामने आते करीने से लगे घटनाओं के क्रम
सिर्फ़ कुछ दिखते निरन्तर स्वर्णमंडित मित्रता से
शेष पर केवल चढ़ा अपनत्व का थोपा हुआ भ्रम
हाथ की रेखाओं में भी बन गये रेखायें गहरी
बस वही पल मित्रता के, शेष बस बीते हुये हैं.
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