मिट रहे हैं पावसी काली घटाओं के अँधेरे
आज प्राची में उषाकी ओढनी लहरा रही है
आज फिर चढने लगी है धूप दिन की सीढ़ियों पर
ऑज अधरों पर तुहिन को इक कली मुस्का रही है
आज मैं अपने हृदय के संशयों के भ्रम मिट लूँ
दूर हों अवशेष तम के, सूर्य आँगन में उगा लूँ
आज दीपक राग गा लूँ
अस्मिताएं जो गईं थी खो, नया अब अर्थ पाएं
दीप की लडियां उदित हों और फिर से झिलमिलाएँ
ओढ़ शरदीली शरद की धुप का कम्बल सुकोमल
नाचने लग जाएँ आँगन में उतर कर के विभाएँ
छेड़ कर कुछ थिरकनें मैं रश्मियों के साज पर अब
सोचता हूँ प्रीत की मादक धुनें फिर से बजा लूँ
आज दीपक राग गा लूँ
उठ रहे संकल्प गंगा के तटों पर डुबकियाँ ले
भोर सोते से उठाती आरती की मंत्रध्वनियाँ
अब नई निष्ठायें ले विश्वास की पूँजी मुदित हैं
खोल कर बाँहें खड़े हैं स्वागतों को द्वार गलियाँ
आ रही पुरबाई लेकर पत्र जो वृन्दावनों के
सोचता हू आंजुरि में किस तरह सारे संभालूँ
आज दीपक राग गा लूँ
झर रहे हैं कल्पतरुओं से सुमन सब अदबदा कर
अल्पनायें खींचती हैं नव अजन्तायें क्षितिज पर
गन्ध पीकर कुंज वन की लड़खड़ाते कुछ झकोरे
धूम्र सा लहरा रहा है बांसुरी का गूँजता स्वर
जो निराशा के कुहासे ओढ़ पर बैठी हुई है
शाम पर मैं आस की सतरंगिया चादर बिछा लूँ
और दीपक राग गा लूँ
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