कक्ष में बैठी हुई पसरी उदासी जम कर
शून्य सा भर गया है आन कर निगाहों में
और निगले है छागलों को प्यास उगती हुई
तृप्ति को बून्द नहीं है गगन की राहों में
फ़्रेम ईजिल पे टँगा है क्षितिज की सूना सा
रंग कूची की कोई उँगली भी न छू पाते हैं
इन सभी को नये आयाम मिला करते हैं
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं
लेके अँगड़ाई नई पाँव उठे मौसम के
सांझ ने पहनी नई साड़ी नये रंगों की
फिर थिरकने लगी पायल गगन के गंगातट
चटखने लग गई है धूप नव उमंगों की
दिन की आवारगी में भटके हुये यायावर
लौट दहलीज पे आ अल्पना सजाते हैं
इक नई आभ नया रूप निखर आता है
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं
पंचवटियां हुई हैं आज सुहागन फिर से
अब ना मारीच का भ्रम जाल फ़ैल पायेगा
रेख खींचेगा नहीं कोई बंदिशों की अब
कोई न भूमिसुता को नजर लगाएगा
शक्ति का पुञ्ज पूज्य होता रहा हर युग में
बात भूली हुई ये आज फिर बताते हैं
हमें ये भूली धरोहर का ज्ञान देते हैं
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं
1 comment:
दीपावली की शुभकामनाएं गुरुदेव!
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