ऋषि वशिष्ठ का विशद ज्ञान ले
विश्वानित्री स्वाभिमान से
जिसने समदर्शी कर जोड़ा
गीता बाइबिल और कुरान से
जो मेरा संस्कार बन गई वही ऋचाएं दोहराता हूँ
जब मैं गीत नया गाता हूँ.
सूरा मीरा के इकतारे में आल्हाद पिरोती सरगम
एक अलौकिक मधुर प्रीत में डूबा महक रहा वृन्दावन
कालिन्दी की, चरण कमल को छूकर पुलकित होती लहरें
गोकुल से मथुरा के पथ पर नित्य बिखरता दधि औ’ माखन
मुरली की मादक धुन वाली
बरसाने की रुनझुन वाली
पुष्प सेज पर चँवर डुलाते
बलखती कदम्ब की डाली
आँखो में जो आन बस गई, वही चित्र में रंग जाता हूँ
जो मेरा संस्कार बन गई, वही ऋचायें दुहराता हूँ
जब मैं गीत नया गाता हूँ
सन्दीपन के आश्रम में जो कृष्ण सुदामा में थी जोड़ी
जिसने धधक रहे इक शर से सागर की सारी ज़िद तोड़ी
जिसके लक्ष्य भेद होकर अंगुष्ठहीन भी रहे अचूके
जिसके तप ने उलझी उलझी शिव शंकर की जटा निचोड़ी
मुनि अगस्त्य के सिन्धु पान पर
भागीरथ के अनुष्ठान पर
जिसकी गाथायें विस्तृत हैं
पुष्पक की मनगति उड़ान पर
जो नस नस में आन बस गईं, वही कथायें पढ़ पाता हूँ
जो मेरा संस्कार बन गई , वही ऋचाएं दोहराता हूँ
फिर मैं गीत नया गाता हूँ
जो करती इतिहास सुगन्धित तानसेन की मृदु तानों से
जिसके पृष्ठ हुये सतरंगी, राजा शिवि के बलिदानों से
स्वर्णरत्न मंडित शब्दों में हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता
जिसकी ज्योति सदा ही गर्वित रही कर्ण के अनुदानों से
कामधेनु जैसी गायों पर
पन्ना के जैसी धायों पर
जहांगीर के नाम ढल गये
न्याय प्रेम के पर्यायों पर
संस्कृति का आधार बनी जो, उसी शिला पर चढ़ पाता हूँ
जो मेरा संस्कार बन गई , वही ऋचाएं दोहराता हूँ
जब भी गीत नया गाता हूँ
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