कहने को तो लगा कहीं पर कोई भी प्रतिबन्ध नहीं है
फिर भी जाने क्यों लगता है हम बिल्कुल स्वच्छन्द नहीं हैं
घेरे हुए अदेखी जाने कितनी ही लक्षमण रेखायें
पसरी हुई पड़ीं हैं पथ में न जाने कितनी झंझायें
पंखुरियों की कोरों पर से फ़िसली हुई ओस की बूँदें
अकस्मात ही बन जाती हैं उमड़ उमड़ उफ़नी धारायें
हँस देता है देख विवशता, मनमानी करता ये मौसम
कहता सुखद पलों का तुमसे कोई भी अनुबन्ध नहीं है
बोये बीज निरंतर नभ में,सूरज चाँद नहीं उग पाते
यह तिमिराँचल अब बंजर है, रहे सितारे आ समझाते
मुट्ठी की झिरियों से सब कुछ रिस रिस कर के बह जाता है
भग्न हुई प्रतिमा के सम्मुख व्यर्थ रहे हैं शीश नवाते
जो पल रहे सफ़लताओं के, खड़े दूर से कह देते हैं
पास तुम्हारे आयें क्यों जब तुमसे कुछ सम्बन्ध नहीं है
परिभाषित शब्दों ने जोड़े नहीं तनिक परिचय के धागे
जो था विगत बदल कर चेहरा हुआ खड़ा है आकर आगे
विद्रोही हो गये खिंचे थे आयत में जो बारह खाने
दरवाजे पर आकर पल पल साँस साँस मज़दूरी मांगे
सोंपे गए मलय के हमको मीलों फैले गहन सघन वन
कितनी बार गुजर कर देखा कहीं तनिक भी गंध नहीं है
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