वृक्ष तो छाँह के शेष सब होगये
उम्र की शाख से पत्र झरते रहे
हम भटकते हुए स्वप्न ले नैन में
सांझ से भोर की बात करते रहे
रात दिन ढूँढ़ते रह गये वे निमिष
जो हथेली में आकर रुके थे नहीं
ज़िद के पीपल घनेरे खड़े द्वार पर
टूट कर गिर गये पर झुके थे नहीं
मुट्ठियों में समर्पण रखा बन्द ही
खोलने का नहीं हमसे साहस हुआ
चाह हर पल पली जीत की चित्त में
पर न पासे उठा खेल पाये जुआ
मंज़िलें जो जुड़ीं थी अपेक्षाओं से
उनके पथ में कदम रखते डरते रहे
साँस सहमी रही द्वार पर आ खड़ी
हो गई थी स्वयं आके जब चाँदनी
शोर का भ्रम हुआ हर घड़ी जब बजी
गुनगुनाती हुई मोहिनी रागिनी
सूर्य तपता मरुस्थल का आ शीश पर
एक अहसास यह घेर रखे रहा
स्वर था असमंजसों में घिरा रह गया
चाहते थे मगर शब्द इक न कहा
रंग छू न सके तूलिका के सिरे
और हम रंग बिन रंग भरते रहे
बाँध ली लाल बस्ते में जब सांझ ने
धूप, उस पल दुपहरी की की कामना
थे शुतुर्मुर्ग से मुँह छिपाते रहे
हम चुनौती का कर न सके सामना
हम बताते स्वयं को युधिष्ठिर रहे
अश्वत्थमा हतो फिर भी कहते रहे
अपना आधार कुछ था नहीं इसलिये
जो भी झोंका मिला,साथ बहते रहे
पंथ आसान था पर हमारे कदम
ठोकरें खाते,गिरते संभलते रहे
जानते थे कि कुछ चाहिये है हमें
चाहिये क्या मगर सोचते रह गये+
जब समय उंगलियों से फ़िसल बह गया
भाग्य की रेख को कोसते रह गये
हम समर्पण का साहस नहीं कर सके
कर गईं इसलिये ही उपेक्षा वरण
चित्र उपलब्धि के सब अगोचर रहे
हट न पाया घिरा धुंध का आवरण
अपने आदर्श बदले नहीं पंथ में
और अवरोध थे, नित्य बढ़ते रहे
साधना है ,कभी ज़िन्दगी ये लगा
है ये माया का भ्रम,है तपस्या बड़ी
हम स्वयं को समझ पायें पल के लिये
सामने आ रही थी समस्या खड़ी
कोई परिचय नहीं हो स्वयं से सका
चाँद उगता रहा, और ढलता रहा
सांस के साथ आहुति बनीं धड़कनें
प्रश्न यज्ञाग्नि सा नित्य जलता रहा
योग्यतायें नहीं आँक अपनी सके
दंभ के कुंभ दिन रात गढ़ते रहे
शब्द अटके रहे कंठ की वीथि में
होंठ पर आ तनिक न प्रकाशित हुए
भाव के पुष्प कट कर रहे गंध से
छोर अंगनाई के न सुवासित हुए
दृष्टि के कोण समतल रहे भूमि के
इसलिये आस उड़ न सकी व्योम में
शांति की कामनायें ह्रदय में बसा
अग्नि सुलगा रखी सोम के रोम में
हो न संभव जो संभावनायें सकीं
बस उन्हीं में निरंतर उलझते रहे
3 comments:
excellent! outstanding!
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