शब्द मेरे पास होते एक मुट्ठी से अधिक तो
गीत मैं क्रम से लगा कर आपको मैं भेंट करता
शब्द जिनको मैं कहूँ अपना, सभी हैं उंगलियों पे
और दोहराते रहे हैं चन्द वे बातें पुरानी
एक पीपल,एक बरगद,एक पनघट, एक अँगना
तीर पर सुधि की नदी के गमगमाती रातरानी
शब्दकोशों से छुड़ाकर हाथ जो आ पाये मुझ तक
बस उन्हीं से रात दिन मैं बैठ कर हूँ बात करता
चाह तो हर रोज मेरा कोष संचय का बढ़े कुछ
और नूतन शब्द मेरे पास आयें बैठ जायें
सुर कोई भी जो उभर कर कंठ से आये अधर तक
बस उन्हीं को गीत कर दें और झूमें गुनगुनायें
टूट जाता हर घड़ी पर स्वप्न बनने से प्रथम ही
ताक पर किरचें उठा कर मैं सदा चुपचाप रखता
आपके जो पास हैं वे भी मुझे अक्सर लुभाते
किन्तु मुझको ज्ञात है विस्तार अपनी झोलियों का
जानता हूँ मिल गये तो साध रखना है असम्भव
है नजर अटकी निरन्तर राह तकती बोलियों का
भावना के सिंधु में लहरें उमड़ती है निशदिन
सोख लेती है सभी, अभिव्यक्ति की लेकिन विफलता
1 comment:
Bahut hi sunder.. badhai
Post a Comment