जीवन के इस समीकरण की गुत्थी को प्रतिदिन सुलझाते
लेकिन हर इक बार लगा यह हो जाती है और जटिल कुछ
उत्तरदायित्वों के लम्बे चौड़े श्यामपट्ट पर रह रह
साँसों की खड़िया लिख लिख कर कोशिश करती सुलझाने की
किन्तु सन्तुलित कर उत्तर तक पहुँच सकें इससे पहले ही
साँझ घोषणा कर देती है मिले समय के चुक जाने की
खिन्न ह्रदय असफ़ल हाथों से आशा की किरचें बटोरता
जिन पर अंकित रहता, संभव अब के उत्तर जाये मिल कुछ
हो कर आती नई सदा ही सम्बन्धों की परिभाषायें
परिशिष्टों में जुड़ जाते हैं नियम नये कुछ अनुबन्धों के
लिखे हुए शब्दों से कोई तारतम्य जुड़ पाये इससे
पहले ही लग जाते बन्धन और नये कुछ प्रतिबन्धों के
ढूँढ़ा करती है नयनों की बीनाई उस पगडंडी को
जिसके अंत सिरे की देहरी से होता अक्सर हासिल कुछ
फ़ैले हुए निशा के वन में कहीं झाड़ियों में वृक्षों पर
चिह्न नहीं मिलता परिचय का,दिखते हैं आकार भयावह
कन्दीलें बन लटके तारे लगता कुछ इंगित करते हैं
कोशिश करता बंजारा मन समझ सके कुछ उनका आशय
प्राची के महलों में जलते हुए दिये की चन्द लकीरें
आसगन्ध बिखरा जाती हैं,शा्यद हल हो अब मुश्किल कुछ
1 comment:
जीवन के इस जोड़ घटाने को संतुलित करने के प्रयास में न जाने कितने समीकरण बिगड़ चुके हैं।
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