भाव ले ढलते नहीं हैं शब्द अब मेरे अधर के
सूत्र में बँध पायें इससे पूर्व रह जाते बिखर के
टिक नहीं पाती किसी भी बिन्दु पर भटकी निगाहें
सिन्धु से आता नहीं मैनाक अब कोई उभर के
डोरियों से बँध धुरी की चल रहे हैं वृत्त में बस
शेष क्या है जानने की कोई जिज्ञासा नहीं है
दिन निहारे भोर उगते ही निरन्तर दर्पणों को
एक बासी अक्स फ़िर फ़िर सामने आता सँवर कर
तह रखी रेखाओं की अनगिन परत के बीच खोया
एक अनुभव,बात कहने को नहीं आता निखर कर
जानते बीता हुआ कल, आयेगा कल रूप बदले
और जो है आज उसकी कोई परिभाषा नहीं है
यूँ ह्रदय तो नित्य भिंचता है समय की मुट्ठियों में
और बींधे रश्मियों से धूप की दिन का धनुर्धर
शूल के आघात पाना है नियति का पृष्ठ अंतिम
है नहीं संभावना यह दृश्य अब आये बदल कर
पीर की बजती हुई शहनाई के मद्दम सुरों में
व्यक्त मन का हाल कर पाये,कोई भाषा नहीं है
बुझ चुके जयदीप जिनको आस ने रह रह जलाया
आंधियों में ढल गईं हर रोज ही बहती हवायें
पल दिवस के,पल निशा के चौघड़ी की चौसरों पर
कर रहें हैं मात देने को निरन्तर मंत्रणायें
पूर्व बिछने के, बिसातों पर हुई है हार ही तय
कोई भी अनुकूल होकर पड़ सके, पासा नहीं है
3 comments:
रामकाज के लिये उड़ान भरेंगे तो मैनाक भी सागर के बाहर आ जायेगा। बड़े ही प्रभावी ढंग से अपने भाव रखे हैं आपने।
bhavon ki abhivykti sahaj hi ho gaee prateet hoti hai.
बहुत प्यारी रचना...
उत्कृष्ट अभिव्यक्ति....
सादर
अनु
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