सांस को चिश्वास की पूँजी

निराशा के समन्दर के सभी तटबन्ध जब टूटॆ
सपन हर आस की परछाईयों के नैन से रूठे
अपरिचित हो गये जब सान्त्वना के शब्द से अक्षर
सभी संचय समय के हाथ पल भर में गये लूटे

तभी जाते हुये अस्ताचली को जो किरन लौटी
उसी की स्वर्णरेखा ने अगोचर सी डगर सूझी

अंधेरों ने हजारों चक्रव्यूहों को रचा बढ़ कर
सुनिश्चय सो गया प्रारब्ध कह लड़ते हुये थक कर
दिशा भ्रम ने लगाये आन कर दहलीज पर पहरे
हवायें सोखने जब लग पड़ें हर एक उठता स्वर

तेरे अनुराग से जो बन्ध गयी इक ज्योति की डोरी
वही बस दे रही है सांस को चिश्वास की पूँजी

डगर पीने लगे जब पगतली के चिह्न भी सारे
अधर की कोर पर आकर टंके जब अश्रु ही खारे
नजर क्र सब वितानों में विजन की शून्यता बिखरे
निशायें सोख लें आकाशगंगा के सभी तारे

पलों की तब असहनीयताओं की उमड़ी हुई धारा
समुख करती रही है एक छवि बस और न दूजी

लगे गंतव्य अपने आप को जब धुन्ध में खोब्ने
दिशाओं के झरोखे जब धुंआसे लग पड़ें होने
क्षितिज का द्वार सीमित हो पगों की उंगलियों पर आ
दिवाकर भी दुपहरी में अंधेरा लग पड़े बोने

उठी इतिहास पृष्ठों से नये संकल्प की धारा
गगन पर चित्र रचती है लिये कर आस की कूची

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

आस के विश्वास से जीवन सजा अब..

Udan Tashtari said...

तेरे अनुराग से जो बन्ध गयी इक ज्योति की डोरी
वही बस दे रही है सांस को चिश्वास की पूँजी

-adbhut!! yahi hai vishwas ki poonji.

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