पढ़ चुका दिन धूप के लिक्खे हुए पन्ने गुलाबी
हो गई रंगत बदल कर मौसमों की अब उनावी
धार नदिया की लगा जम्हाईयाँ लेने लगी है
शाख पर है पत्र की बाकी नहीं हलचल जरा भी
याद की तीली रही सुलगा नई कुछ बातियों को
सांझ के पहले दिये से भोर के अंतिम दिये तक
एक पल आ सामने अनुराग रँगता राधिका सा
दूसरे पल एक इकतारा बजाती है दिवानी
रुक्मिणी का नेह ढलता भित्तिचित्रों में उतर कर
फिर हवायें कह उठी हैं सत्यभामा की कहानी
छेड़ता है कोई फिर अनजान सी इक रागिनी को
तोडती है जो ह्रदय के तार बंसी के हिये तक
बांधती है पांव को अदृश्य सी जंजीर कोई
कोई मन का उत्तरीयम बिन छुये ही खींचता है
एक अकुलाहट उभरने लग पड़े जैसे नसों में
मुट्ठियों में कोई सहसा ही ह्रदय को भींचता है
दृष्टि की आवारगी को चैन मिल पाता नहीं है
हर जुड़े सम्बन्ध से अनुबन्ध हर इक अनकिये तक
झिलमिलाते तारको की अधगिरी परछाईयों में
घुल संवरते हैं हजारों चित्र पर रहते अबूझे
कसमसाहट सलवटों पर करबटें ले ले निरन्तर
चाहती है कोई तो हो एक पल जो बात पूछे
खींच लेती हैं अरुण कुछ उंगलियाँ चादर निशा की
वृत्त ही बस शेष रहता रेख के हर जाविये तक
3 comments:
रोज़ कम से कम एक बार आपकी क़वितायें पढ़ती/सुनती हूँ और आवाक रह ज़ाती हूँ, रोज़ ही पुरानी कविताओं में भी नए बिम्ब दिखते हैं!
ऐसा कैसे लिखवाती हैं माँ शारदा आपसे, ये आप ही जाने!
नई कविताओं का नंबर तो तब आए जब मैं इस बिम्ब से उबर पाऊं..." स्वप्न को इसलिए एक टीका लगा, ताकि उसको कहीं न नज़र लग सके, और चुपचाप ही याद को ओढ़ कर, मन की एकाकियत में उतर भर सके.".. जाने कौन सी कविता की पंक्तियाँ हैं ये आपकी! इसमें 'उतर भर सके'...ये हज़ारों तरह से बार बार दृश्य बन के सामने आता है! ये गलत बात है, इतना अच्छा लिखने की कोई ज़रुरत नहीं है आपको :)
...और एक ये: "वो जो बदले वक्त की परछाईं से बदले नहीं थे / और जिनको कर सकें सीमित कहीं गमले नहीं थे..." ये बाबूजी की याद दिलाता है, रुलाता है!
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आज की कविता भी पढ़ी, बहुत ही सुन्दर है; कुछ पंक्तियाँ तो ऐसीं है कि रोना आ गया!
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महाशिवरात्रि पे सपरिवार आपको प्रणाम और शुभकमनाएं!
सादर शार
अद्भुत चित्र खींचा है आपने...यही तो जीते रहने की लीक है..
अति सुन्दर- वाह!!
खींच लेती हैं अरुण कुछ उंगलियाँ चादर निशा की
वृत्त ही बस शेष रहता रेख के हर जाविये तक
आनन्द आ गया...उभर आया सांझ का और भोर का दिया भी...
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