इक कुम्हारन समय की



इक कुम्हारन समय की कहीं गाँव में
गढ़ रही है दिवस के घड़े चाक पर
रात मिटटी का लोंदा बना गूंधती
और फिर तापती उनको आलाव पर

क्या भरे क्या पता आज के हाथ में
जो दिवस का घडा सौंप कर वो गई
तृप्ति का नीर ला कोई भर जाएगा
या मथेगी उसे रश्मियों की रई
ला जलहरी पे कोई उसे टांक दे
या बुलाये उसे पनघटों की गली
छाप उसकी बने काल के शीश पर
या निगल ले उसे सांझ की वावली
 
कौन जाने कुशल उँगलियों ने रखा
कितना विस्तार उसमें गुणा माप कर
 
आ गए सांझ के द्वार को छोड़ कर
रात के पाँव इस और चलते हुए
ये सुनिश्चित उसी ने किया था सदा
साथ दीपक रहें कितने जलते हुए
कितनी नीहारिकाएं सपन के कलश
भर सकेंगी उमड़ नैन की छाँव में
भोर के तारकों की बजे पैंजनी
जानती है वही कौन से पाँव में
 
एक ही है प्रहर रच दिया था जिसे
आठ से कर गुना रख दिया ताक पर

जो पथिक चल रहा है दिशा छोड़ कर
तय करे वह उसे पोटली सौंप दे
भर के पाथेय गंतव्य की राह का
या कि पग बीच में ही कहीं रोक दे
किसको मालूम कब क्या गढ़ें उंगलियां
उस कुशल शिल्पिनी की मचलती हुई
कब सुनहरी करे,  काजरी कब करे
एक चादर रही जो  लहरती हुई

बाँटती जा रहीअपने हर शिल्प को
पात्रता के लिये योग्यता आँक कर

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सृजन का द्वन्द्व, अपेक्षा या तृप्ति..

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