प्रश्न और भी प्रश्न बो गये

क्या मैं तुझको कहूं सुनयने
संचित सारे शब्द खो गए
भाव उठे थे जितने मन में
अधर पंथ तक विलय हो गए


असमंजस की भूलभुलैया
संशय के गहरे अंदेशे
इन सब में ही घुले रह गए
जितने लिख पाया संदेशे
कहीं न ऐसा हो,वैसा हो
उहापोह रहा उलझता
अवगुंठित हर तान हो गई
गाता भी तो मैं क्या गाता


झंकारे तो तार साज के
पर सुर सारे मौन हो गए


बुने नयन की बीनाई में
अर्थ अनकही सी बातों के
गूंथे सपने भी अनदेखे
जाग कटी थीं उन रातों के
सम्प्रेषण की डोरी डोरी
रही टूटती पर रह रह कर
और कथ्य झर गया आँख से
एक बूँद के संग बह बह कर


पाटल पर आने से पहले
स्वप्न संजोये सभी सो गए


आशंकाएं परिणामों की
बनती रहीं कर्म की बेडी
दृष्टिकोण यों हुए प्रभावित
सीधी रेखा दिखती टेढ़ी
सजा करीं अनगिनत अपेक्षा
किन्तु नहीं हो सका प्रकाशन
देते रहे स्वयं ही निज को
भ्रम में डूब रहे आश्वासन


निष्कर्षों पर पहुँच न पाए
प्रश्न और भी प्रश्न बो गये

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रश्न और उत्तर की खीचमखाच यह जिन्दगी।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

इन्हीं प्रश्नों के बीच गुजरता है जीवन का हर पल .......... प्रभावी अभिव्यक्ति

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