खुल गये सहसा ह्रदय के बन्द द्वारे
कोई प्रतिध्वनि मौन ही रह कर पुकारे
और सुर अंगनाईयां आकर बुहारे
आ गई फिर नींद से उठ आँख मलती रात सोई
आज फिर गाने लगा है गीत कोई
लग गई घुलने नई सरगम हवा में
शब्द ढूँढ़े होंठ पर ठहरी दुआ ने
गुत्थियों में रह गये अटके सयाने
सिन्धु से ले बादलों में धूप ने फिर बून्द बोई
आज फिर गाने लगा है गीत कोई
लग गये कुछ दीप अपने आप जलने
पल प्रतीक्षा के लगे सारे पिघलने
आज को आकर सजाया आज कल ने
भावनायें खिल उठीं भागीरथी के नीर धोई
आज फिर गाने लगा है गीत कोई
सीप ने ज्यों तीर पर मोती बिखेरे
चित्र लहरों ने स्वयं पर ही उकेरे
हो रहे तन्मय,दुपहरी तक सवेरे
चेतना सुधि छोड़कर भीनी हवा के साथ खोई
आज फिर गाने लगा है गीत कोई
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4 comments:
अच्छी रचना है, बधाई
"सीप ने ज्यों तीर पर मोती बिखेरे
चित्र लहरों ने स्वयं पर ही उकेरे"
http://www.hindisahityasangam.blogspot.com/
- विजय
भावनायें खिल उठीं भागीरथी के नीर धोई
आज फिर गाने लगा है गीत कोई..
हम तो आपके शब्दों के संयोजन के फ़ैन है...कोई जोड़ नही आपके इस हुनर का..
आज भी एक बेहतरीन प्रस्तुति......धन्यवाद राकेश जी...प्रणाम स्वीकारें..
बड़ी सुन्दर पंक्तियाँ पिरो दी हैं।
"भावना एक अपन्त्व की बस रहे
स्वार्थ पाये नहीं स्थान कोई कहीं
प्रज्ज्वलित ज्योति दीपावली की रहे
रह न पाये कलुष तम का कोई नहीं
बात होठों से निकले जो अबके बरस
शब्द में ही सिमट कर नहीं बस रहे
जो भी निश्चय करें बस वही धार बन
एक भागीरथी की निरन्तर बहे"
अति सुन्दर। आपके गीत भी दियों की तरह जग को प्रकाशित करें, यही कामना है।
कृपया अपना मेल आइडी दें।
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