गूँजती स्वर मॆं सिसक कर
आँख से बहती निकल कर
पीर मन की बोलती तो है, मगर गाती नहीं है
और पल उल्लास के वे
हास के परिहास के वे
याद उनकी एक पल को लौट कर आती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है
अनमने होकर निपटते हैं दिवस के प्रहर सारे
और खालीपन लपेटे देह को संध्या सकारे
सात घोड़े सूर्य के रथ के चुनें विपरीत पथ को
रात भी आती नहीं है, सांझ कितना पथ निहारे
दीप आतुर जल सके वो
बात कोई कर सके वो
किन्तु सूखी शाख पर इक मंजरी आती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है
सिलसिले भी खत्म होते हैं नहीं तन्हाईयों के
धुन्ध पीती जा रही आकार भी पर्छाईयों के
बेड़ियां बनत्ते पगों की लुम्बिनी के राजद्वारे
ढूँढ़ते पहचान स्वर भी गूँजती शहनाईयों के
अर्थ की दुश्वारियाँ हैं
बुझ रही चिंगारिया है
मिल रहे हैं जो दिये, उनमें कोई बाती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है
हाथ से जब छूट जाते हैं सिरे भी उंगलियों के
और नभ पर से बरसते तीर ही जब बिजलियों के
लिख रहे थे जो सुनहरी रागिनी पुरबाईयों पर
टूट बिखराने लगें वे पंख भी जब तितलियों के
उस घड़ी की छटपटाहट
और मन की सुगबुगाहट
करवटें लेती निरंतर, सो मगर पाती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है
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12 comments:
बहुत ही सुन्दर गीत है आज का !
लेखन का नया सा ढंग भी देखा, बहुत अच्छा लगा :)
===========
पर एक अनुरोध, कविशिरोमणि:
पीर को कविराज देते आप कितनी तूल
वो भी जम कर छानती है गीत-कलश की धूल
आप ही जब रो पडें, तो चांद-तारे क्या करें
कैसे हँसे कलियां, खिलें किस रंग के फिर फूल?
पीर मन की बोलती तो है, मगर गाती नहीं है
बहुत सुंदर।
मूक पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति!
सुन्दर।
beautiful composition specially the reference to Lumbini
out of the world
keep it up
गूँजती स्वर मॆं सिसक कर
आँख से बहती निकल कर
पीर मन की बोलती तो है, मगर गाती नहीं है
--अद्भुत भाई जी. आनन्द आ गया.
आज आपको मेल करुंगा. :)
raakesh ji...ek ek pankti mun tak pahunchti hain..aabhaar
बहुत ही सुन्दर गीत है।बधाईस्वीकारें।
उस घड़ी की छटपटाहट
और मन की सुगबुगाहट
करवटें लेती निरंतर, सो मगर पाती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है
बहुत ही दिल को छु लेने वाली रचना है ..मूक पीड़ा मुखर हो कर बहुत कुछ कह गई ..किसी एक पंक्ति विशेष को अंकित करना मुश्किल है ..बहुत पसंद आई मुझे आपकी यह रचना
कितने खूबसूरत शब्द, और कितनी मार्मिक कविता. निशब्द हूँ, समझ नहीं आता कैसे तारीफ़ करूँ...ऐसी कविता जैसे सदियों में एक बार लिखी जाती है, ये पंक्तियाँ बेहद मोहक लगीं मुझे
अनमने होकर निपटते हैं दिवस के प्रहर सारे
और खालीपन लपेटे देह को संध्या सकारे
सात घोड़े सूर्य के रथ के चुनें विपरीत पथ को
रात भी आती नहीं है, सांझ कितना पथ निहारे
मैं तो आपके शब्द और भाव की माया नगरी में खो गया हूँ...क्या कमेन्ट करूँ समझ नहीं पा रहा...अद्भुत रचना...
नीरज
"और पल उल्लास के वे
हास के परिहास के वे
याद उनकी एक पल को लौट कर आती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है"
...Just not able to get over these lines! Is it the intricate rhyming in it, is it the meaning in it? Not sure. Earlier I had thought it would be the Lumbini lines that I would remember the next day too. But no, these simple but heart wrenching lines are the ones that I carry on my shoulders today too.
So thought, must let you know and send some gratitude your way on thanksgiving. May God bless you & your family ! Did you have a turkey dinner ? Then it must be that turkey who must be singing these lines:)
Since you do not know my mail, answer in this comment coloumn. I will look for it tomorrow.
शारजी,
आपके उठाये प्रश्न के उत्तर में यह कहूँगा:
हमने जो रेखायें खींचीं, वे ही तो बींध रहीं हमको
तो निविड़ अँधेरे में लहरें लौटी हैं खाली हाथ विवश
हम खुद ही तो अपराधी हैं, बिक जाने दिया रश्मियों को
मधुमास द्वार पर आया तो दुत्कार दिया कह कर नीरस.
सादर
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