भोर की पहली किरण जब गा चुके वाराणसी में
सांझ थक कर बैठ जाये वीथियों में जब अवध की
बौर सब अमराईयों के बीन कर ले जाये पतझड़
शब्द रखवाला स्वयं ही लूट ले पूँजी शपथ की
प्राण सलिले ! प्रीत का विश्वास उस पल में निरंतर
हर अंधेरी रात में दीपक बना जलता रहेगा
राह में झझायें आकर हों खड़ी बाँहे पसारे
वॄष्टि का आवेग कर दे जब प्लावित दॄश्य सारे
हर कदम दावानलों ने गोद में अपनी रखा हो
बीतने लगते सभी दिन हों लगे जब अनगुजारे
चन्द्रबदने ! नैन पाटल पर उभरता प्रीत का पल
बन सुधा अंगनाईयों में प्राण की झरता रहेगा
जब तिमिर का एक धागा चादरों सा फ़ैल जाये
गुनगुनाहट इक विहग की शोर का आकार ले ले
जब घिरें बदरंग कोहरे, पंथ में आ संशयों के
भोर संध्या औ’ दुपहरी, आ निराशा द्वार खेले
स्वर्णवर्णे ! प्रीत की उस पल सुरभि का स्पर्श पाकर
वेदना का हिम, सहज कर्पूर सा उड़त रहेगा
लील जाये जब हथेली ही स्वयं अपनी लकीरें
मील का पत्थर निगल कर राह को जब खिलखिलाये
बादलों को कैद कर ले जब क्षितिज के पार अम्बर
और बस निस्तब्धता ही ज़िन्दगी का गीत गाये
कोकिले ! तब शब्द का विन्यास सुर से स्वर मिला कर
मौन के साम्राज्य से संघर्ष कर लड़ता रहेगा
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8 comments:
:)
आपका गीत पढ़ कर मेरी तो सुबह सार्थक हो गयी.
साधुवाद.. साधुवाद... साधुवाद....
भाई जी, अब क्या कहूँ..आपकी रचनाओं पर कुछ कमेंट करने पर अब घबराने लगा हूँ कि कहीं कमतर न आंक जाऊँ..बस उसी घबराहट में कहता हूँ कि अति उम्दा!! और शब्द भी तो नहीं हैं. :)
भोर की पहली किरण जब गा चुके वाराणसी में
सांझ थक कर बैठ जाये वीथियों में जब अवध की
बौर सब अमराईयों के बीन कर ले जाये पतझड़
शब्द रखवाला स्वयं ही लूट ले पूँजी शपथ की
आपको पढने की प्रतीक्षा रहती है और हर बार कुछ पाता ही हूँ। आपकी मेखनी को नमन।
***राजीव रंजन प्रसाद
क्या लिखा जाये ऐसी कविता की टिप्पणी में?
ये कि इसमें इतनी आशा-निराशा,यथार्थ-स्वप्न, पवित्रता-श्रिगार (spelling!!)साथ-साथ कैसे है?
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"जब कवि गायें उचित देय है बस एक नमन औ' मुस्कुराहट,
समा रखा एक ही कविता में चिर विश्वास और अकुलाहट !"
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"भोर की पहली किरण जब गा चुके वाराणसी में
सांझ थक कर बैठ जाये वीथियों में जब अवध की"
कभी तीरथ के लिये बनारस या अवध गये तो आपकी ये पंक्तियां साथ ले जायेंगे !
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बच्चन जी की " अंधेरी रात में दीपक जलाये" की याद आ गयी ।
आप लिखते रहें . . .
राकेश जी...क्या कहूं,बस वही स्थिति है.अवाक् मोहित मंत्रमुग्ध---शब्दों के श्रृंगार पर
आज ही "अंधेरी रात का सूरज" की मेरे प्रति मुझे प्राप्त हुई.नशे की हालत है मन की.अभी शायद कुछेक दिनों तक आपके ब्लौग का चक्कर कम ही लगे.किताब की साज-सज्जा और कलेवर और प्रकाशन की जितनी तारिफ करूँ कम है
आपके गीत वीथिका में प्रवेश करते ही सुन्दरता ऐसे मंत्रमुग्ध करती है कि व्यक्ति उनमे रमकर आत्मविस्मृत हो जाता है.
बहुत बहुत सुंदर.........
Aaiy-haay kya baat hai, kahan se mil gayi aap ko aisi param sunderi?? Woh bhi videsh main!
प्राण सलिले !
चन्द्रबदने !
स्वर्णवर्णे !
कोकिले !
3 nahin 4 superb sambodhan !!
kya address hai aapka, zara batana toh sahi, hum bhi vahin dhooni rama ke baith jaayenge. shayaad hamari bhi kismat khul jaaye :) Devi-darshan ho jaayein !
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