कुछ अलग रंग के मुक्तक

मोहब्बत के बगीचे के अगर हम इक शजर होते
ज़माने की अलामत से सदा ही बेखबर होते
ये मुमकिन है कि करते हम, कहीं तकरीर बन लीडर
यकीं है और कुछ होते, न शायर हम मगर होते.

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धरम के चोंचले ये सब जो जन्नत में गढ़े होते
जो हैं छोटे वे अपने कद से न ज्यादा बड़े होते
न ही तब मिशनरी होती, न होता धर्म परिवर्तन
जनमते ही धरम सीने पे बन तमगे जड़े होते.

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जब ह्रदय की पीर हमने ढाल शब्दों में बहाई
आपका संदेश आया है बधाई हो बधाई
यों लगा शुभकामनायें आपकी ये कह रही हैं
ज़िन्दगी भर रुक न पाये अब तुम्हारी ये रुलाई


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6 comments:

Udan Tashtari said...

हा हा,

वाकई बहुत ही अलग रंग के बल्कि यूँ कहिये कि रंग बिरंगे हँसते हँसाते मुक्तक है. बहुत बधाई. :)

Anonymous said...

राकेश जी, सुन्दर, अति सुन्दर

अभिनव said...

मोहब्बत के बगीचे के अगर हम इक शजर होते
ज़माने की अलामत से सदा ही बेखबर होते
ये मुमकिन है कि करते हम, कहीं तकरीर बन लीडर
यकीं है और कुछ होते, न शायर हम मगर होते.

वाह राकेश भाईसाहब, अद्भुत हैं आप।

सुनीता शानू said...

राकेश जी बहुत सुंदर मुक्तक है,..आपका ये रंग पहली बार पढ़ा... बहुत अच्छा लिखते है आप,..
आपकी लेखनी हम लोगो के लिये एक प्रेरणा है।
सुनीता(शानू)

Dr.Bhawna Kunwar said...

अब आप थोड़ा हटकर लिखने लगे हैं, पर हम तो कायल हैं आपके लेखन के, हमें तो ये मूड कुछ ज्यादा ही पसन्द आया।

बहुत-बहुत बधाई।

Anonymous said...

खूब कहा है!!!

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