वक्त के साथ सब कुछ बदलता रहा
जो न बदले तनिक, लेख थे भाग के
रोज ही राह में दीप इक बाल कर
इक प्रतीक्षा लिये थी प्रतीक्षा खड़ी
पश्चिमी द्वार पर से गुजरता हुआ
सूर्य करता रहा उम्र उसकी बड़ी
स्वप्न के नित्य अंकुर रहे फूटते
नैन की क्यारियों में , मगर दो घड़ी
और बस शेष रह पाईं हैं हाथ में
टूट कर झर रहे मोतियों की लड़ी
आस के कुमकुमे इस तरह टूटते
जल में उठते हुए बुलबुले झाग के
उंगलियाम थक गईं रंग सिन्दूर में
द्वार पर लाभ, शुभ, लाभ लिखते हुए
हर दिशा में बनाते हुए सांतिये
और दीवार रंगीन करते हुए
थाम कर जलकलश, मंत्र से पूर कर
अपनी अँगनाई में जल छिड़कते हुए
इत्र खस के, हिना, केवड़े के लिये
अपने आराध्य को भेंट करते हुए
पांव पर उनके मुर्झाये जो, फूल थे
अपने सिरमौर, सर पर रखी पाग के
ये नहीं था कि हम कर्म से हीन थे
शास्त्र ने जो कहा नित्य करते रहे
व्रत, अनुष्ठान पूजा, कथा भागवत
की डगर पर सदा ही विचरते रहे
राह में जो भी मंदिर मिला, हम वहीं
शीश अपना झुका प्रार्थना कर रहे
और नागा किये बिन, सवाया सदा
मंदिरों में समर्पण लिये , धर रहे
पर न आईं बसन्ती बयारें इधर
फूल खिल पाये, मन के , नहीं बाग के
रवि को सूरज नमन, सोम शिव पूजते
करते मंगल पवन सुत की आराधना
बुध को चन्दा को हमने चढ़ाया अरघ
और गुरु को बॄहस्पति की,की साधना
शुक्र संतोष में बीत कर रह गया
तेल शनि को शनि पर चढ़ाया किये
भोर - संध्या नमन, रात को जागरण
के स्वरों से रहा गूँजता आँगना
पर न आया उतर कर कोई देवता
शब्द कहता हमें चार अनुराग के
केसरी वस्त्र में तन लपेटे हुए
चादरें ओढ़ कर राम के नाम की
वे गुरु बन सिखाते रहे थे हमें
ज़िन्दगी में महत्ता है बस नाम की
मान उनके वचन, ब्रह्म के वाक्य हम
उनका करते रहे थे सदा अनुसरण
और कहते रहे, है हमीं में कमी
जो सफ़लता नहीं कर सकी है वरण
ये न जाना कि अपनी तमस में घिरे
जाग कर स्वप्न देखा किये जाग के
एक विद्रोह से भर गया फिर ह्रदय
तोड़ डाले सभी बंध बाँधे हुए
बोझ अपना उठाने का निश्चय किये
आज तैयार फिर अपने काँधे हुए
चीर कर पंडितों के बनाये हुए
सारे भ्रम जाल हम आज कर्मठ हुए
एक पल में , जो कीकर बिछे राह में
छाँह शीतल लुटाते हुए वट हुए
झोलियाँ मधुकणों से उफ़नने लगीं
दीप बन कर सजे पिंड सब आग के
फिर नया एक सूरज उगा बोध का
छाँट किरणों की कैची से तम का वसन
ज्ञान का दीप प्रज्वल हुआ है नया
स्वेद-कण आंजुरि भर किया आचमन
खोलने पट लगी हैं दिशायें सभी
आईं उपलब्धियां चल स्वत: राह में
गूँजते घोष जय के गगन में नये
पुष्प बिछने लगे आ स्वयं राह में
कुछ न हासिल हुआ था हमें, जब तलक
हम रहे थे भरोसे पड़े भाग के
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7 comments:
राकेश जी मन को छूती हुई रचना है आप की.. निराशा से आशा की और ले जाती हुयी और जो उपमायें और बिम्ब आप ने प्रयोग किये हैं उनका कोई जोड नही पा पायेगा..
पढ कर मन आन्नदित हो गया
मानसिक उथल- पुथल को दर्शाती एक अच्छी रचना है।बधाई।
बह गये भई जी. क्या गजब रचे हैं भई. आनन्द आ गया. बहुत बधाई. दाद के लिये अल्फाज नहीं मिल रहे.
समीर जी के चिट्ठी से पता चला कि १८ मई को आपका जन्म दिन है। शुभकामनायें।
१८ मई ..आपके जन्मदिन के अवसर पर हमारी शुभकामनायें.....बधाई
आज ही पढ़ी आपकी यह रचना.....बस पढ़ती चली गई......बहुत सुंदर!!
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें..!!
बहुत सुंदर रचना के लिये ढेर सारी बधाई।
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