ढाई अक्षर दूर

भटक गया हरकारा बादल, भ्रमित कहाँ, मैं सोच रहा
मेरे घर से ढाई अक्षर दूर तुम्हारा गांव है

मेघदूत को बाँधा है मैने कुछ नूतन अनुबन्धों में
और पठाये हैं सन्देशे सब, बून्दों वाले छंदों में
जो मधुपों ने कहे कली से उसकी पहली अँगड़ाई पर,
वे सबके सब शब्द पिरो कर भेजे मैने सौगंधों में

किन्तु गगन के गलियारे में नीरवता फ़ैली मीलों तक
नहीं दिखाई दे बादल की मुट्ठी भर भी छांव है

सावन की तीजों में मैने रसगंधों को संजो संजो कर
मदन शरों से झरते कण को हर अक्षर में पिरो पिरो कर
गन्धर्वों के गान, अप्सराओं की झंकॄत पैंजनियों में
से उमड़े स्वर में भेजा है, उद्गारों को डुबो डुबो कर

चला मेरे घर से भुजपाशों में भर कर मेरे भावों को
और कहा पूरे रस्ते में नहीं उसे कुछ काम है

पनघट ने गागर भर भर कर, मधुरस से सन्देशे सींचे
सूरज ने ले किरण , किनारी पर रंगीन चित्र थे खींचे
केसर की क्यारी में करती अठखेली जो चंचल पुरबा
करते हुए अनुसरण उनका साथ चली थी पीछे पीछे

बादल अगर नहीं भी लाये, तुम्हें विदित है सन्देशों में
लिखा हुआ है, अन्तर्मन में लिखा तुम्हारा नाम है

3 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

Unknown said...

अनुभूति और अभिव्यक्ति......दोनो बहुत सुन्दर !!

Mohinder56 said...

बून्दों वाले छंदों पर क्या बंध आपने डाले थे
मेघ को आपने दूत बनाया, आप भी कुछ मतवाले थे
ढाई अक्षर दूर अवश्य पिया का गांव रहा
दिशा बदल कर उडा बांबरा, हवा वेग से बंधा हुआ

सुन्दर कविता...धृष्टा के लिये क्षमा...

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