हम किसको परिचित कह पाते

हम अधरों पर छंद गीत के गज़लों के अशआर लिये हैं
स्वर न तुम्हारा मिला, इन्हें हम गाते भी तो कैसे गाते

अक्षर की कलियां चुन चुन कर पिरो रखी शब्दों की माला
भावों की कोमल अँगड़ाई से उसको सुरभित कर डाला
वनफूलों की मोहक छवियों वाली मलयज के टाँके से
पिघल रही पुरबा की मस्ती को पाँखुर पाँखुर में ढाला

स्वर के बिना गीत है लेकिन, बुझे हुए दीपक के जैसा
हम अपने आराधित का क्या पूजन क्या अर्चन कर पाते

नयन पालकी में आ बैठे, चित्र एक जो बन दुल्हनिया
मन के सिन्धु तीर पर गूँजे, जिसके पांवों की पैंजनियां
नभ की मंदाकिनियों में जो चमक रहे शत अरब सितारे
लालायित हों बँधें ओढ़नी जिसकी, बन हीरे की कनियां

यादों के अंधियारे तहखानों की उतर सीढ़ियां देखा
कोई ऐसी किरन नहीं थी, हम जिसको परिचित कह पाते

साँसों की शहनाई की सरगम में गूँजा नाम एक ही
जीवन के हर पथ का भी गंतव्य रहा है नाम एक ही
एक ध्येय है , एक बिन्दु है, एक वही बन गया अस्मिता
प्राण बाँसुरी को अभिलाषित, रहा अधर जो स्पर्श श्याम ही

जर्जर, धूल धूसरित देवालय की इक खंडित प्रतिमा में
प्राण प्रतिष्ठित नहीं जानते, उम्र बिताई अर्घ्य चढ़ाते

सपनों की परिणति, लहरों का जैसे हो तट से टकराना
टूटे हुए तार पर सारंगी का एक कहानी गाना
काई जमे झील के जल में बिम्बों का आकार तलाशे
जो पागल मन, उसको गहरा जीवन का दर्शन समझाना

धड़कन के ॠण का बोझा ढो ढो कर थके शिथिल काँधों में
क्षमता नहीं किसी अनुग्रह का अंश मात्र भी भार उठाते

6 comments:

ghughutibasuti said...

सपनों की परिणति, लहरों का जैसे हो तट से टकराना
बहुत सुन्दर कविता है।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

अरे महाराज क्या-क्या अनूठी उपमाये लिखते हैं आप! क्या कल्पना शक्ति है! नयन पालकी आपकी पसंदीदी उपमा है। :)
ये लाइने खासकर अच्छी लगीं-
नयन पालकी में आ बैठे, चित्र एक जो बन दुल्हनिया
मन के सिन्धु तीर पर गूँजे, जिसके पांवों की पैंजनियां
नभ की मंदाकिनियों में जो चमक रहे शत अरब सितारे
लालायित हों बँधें ओढ़नी जिसकी, बन हीरे की कनियां

Mohinder56 said...

राकेश जी,
आपकी कल्पना और उपमाओं की उडान अत्यन्त प्रशन्सनीय है.. जो रचना में इस तरह रस भर देती है जैसे जलेबी में चाशनी भरी होती है...
यूहीं निरन्तर रस वर्षा करते रहिये

"यादों के अंधियारे तहखानों की उतर सीढ़ियां देखा
कोई ऐसी किरन नहीं थी, हम जिसको परिचित कह पाते"

"धड़कन के ॠण का बोझा ढो ढो कर थके शिथिल काँधों में
क्षमता नहीं किसी अनुग्रह का अंश मात्र भी भार उठाते"

Unknown said...

"काई जमे झील के जल में बिम्बों का आकार तलाशे"

पूरी कविता बहुत सुंदर है।....हमेशा की तरह!!

Dr.Bhawna Kunwar said...

राकेश जी किन पंक्तियों की तारीफ की जाये और किन पंक्तियों के बारे में न की जाये बडी समस्या है अक्सर मैं अपनी पसन्द की पंक्तियाँ छाँटकर लिख देती हूँ मगर इस बार नहीं क्योंकि इस बार सभी पंक्तियाँ रस में पगी हैं वैसे तो हमेशा ही होती हैं पर कुछ ऐसी होती हैं जो हमारे दिलो दिमाग पर छा जाती हैं इस बार तो सभी छा गयी। आपको बहुत-बहुत बधाई।

Anonymous said...

//यादों के अंधियारे तहखानों की उतर सीढ़ियां देखा
कोई ऐसी किरन नहीं थी, हम जिसको परिचित कह पाते//
मुझे ये पन्क्तियां सबसे ज्यादा पसंद आई‍.

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