दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद में बुतखानों में
ढूंढ़ रहे हो सूरज को तुम अंधियारे तहखानों में
राजमुकुट ने कब चूमा है आम आदमी को आकर
ऐसी बातें मिलती केवल माजी के अफ़सानों में
जनसत्ता है नारे बाजी, प्रजातंत्र है बहलावा
सिमटी हुई देश की सत्ता, केवल चंद घरानों में
राजनीति के जटिल गणित का सीधा साधा समीकरण
सारे उत्तर साम दाम में , साकी के यारानों में
देश-प्रेम की जन सेवा की उम्मीदें बेकार हुईं
टके सेर भी दाम न मिलता अब इनका दूकानों में
ये उबाल भी दो छींटे खाकर ठंडा हो जायेगा
कहां आंधियाँ होती काफ़ी हाउस के तूफ़ानों में
कैसे ख्वाब सजाये हो तुम रजनीगंधा महकेगी
नागफ़नी के बीज तुम्ही ने बोये हैं उद्यानों में
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12 comments:
वाह वाह .. राकेश जी ! बहुत खूब !
रिपुदमन पचौरी
बहुत सही और यथार्थपरक कविता।
बहुत अधिक सार्थक पंक्तियाँ, आशा है कि आपके इस तेवर की अन्य रचनाएँ भी हमको शीघ्र सुनने को मिलेंगी। इस ग़जल के कुछ शेर अब हम कोट किया करेंगे। ये तीन शेर सबसे अधिक पसंद आए।
दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद में बुतखानों में
ढूंढ़ रहे हो सूरज को तुम अंधियारे तहखानों में
जनसत्ता है नारे बाजी, प्रजातंत्र है बहलावा
सिमटी हुई देश की सत्ता, केवल चंद घरानों में
कैसे ख्वाब सजाये हो तुम रजनीगंधा महकेगी
नागफ़नी के बीज तुम्ही ने बोये हैं उद्यानों में
राकेश जी ये आपने कुछ अलग हटकर लिखा है बहुत पसंद आया। बहुत-बहुत बधाई। वैसे तो पूरी ही रचना बहुत अच्छी मुझे खासकर ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं।
आपके जवाब भी दे दिये हैं देख लीजियेगा कि हम पास हुए या फेल?
देश-प्रेम की जन सेवा की उम्मीदें बेकार हुईं
टके सेर भी दाम न मिलता अब इनका दूकानों में
कैसे ख्वाब सजाये हो तुम रजनीगंधा महकेगी
नागफ़नी के बीज तुम्ही ने बोये हैं उद्यानों में
अति सार्थक रचना. हर एक शेर अपनें आप में अनूठा है और बहुत सफल संदेश लेकर आया है, बधाई!!
राजमुकुट ने कब चूमा है आम आदमी को आकर
ऐसी बातें मिलती केवल माजी के अफ़सानों में
बहुत ख़ूब...राकेश जी ...
"ये उबाल भी दो छींटे खाकर ठंडा हो जायेगा
कहां आंधियाँ होती काफ़ी हाउस के तूफ़ानों में
कैसे ख्वाब सजाये हो तुम रजनीगंधा महकेगी
नागफ़नी के बीज तुम्ही ने बोये हैं उद्यानों में"
सुन्दर सरल एंव श्रेष्ठ रचना, आप का कहना बिल्कुल सत्य है... काफी हाउस में की गयी बहस से कुछ होने वाला नही, हमने (जनता) ने अपने आपको ठीक से पहचान नही है.. वरना नागफनी की जगह रजनीगंधा ही मह्कता
श्रीश भाई, समीर भाई, मोहिन्दरजी, रंजुजी, भावनाजी, अभिनव और रिपुदमन.
आप सभी को धन्यवाद कि प्रयास आपने पसन्द किया. अभिनव तुम्हारा अनुरोध मुझे स्वीकार है. अब शीघ्र ही कुछ ऐसी रचनायेम भी प्रस्तुत करूँगा. होली के मूड से उबरने के पश्चात
आपका बलोग पढा और सुना कविता पाठ।अच्छा लगा ।आप मेरी एक समस्या का समाधान करें। मैं भी ब्लोग बनाना चाहता हूँ लेकिन मैं अपनी रचनाओं को जब भी ब्लोगर पर पेस्ट करता हूँ तो वह इंगलिश अक्षरों में बदल जाती हैं ।किरपा करके बताएं मैं क्या करूँ ।मेरा ई मेल पता:-paramjitbali@yahoo.co.in
बहुत ही प्रभावशाली कविता के लिये धन्यवाद.
"जनसत्ता है नारे बाजी, प्रजातंत्र है बहलावा
सिमटी हुई देश की सत्ता, केवल चंद घरानों में"
हर पंक्ति में कडुवी सच्चाई है
bahut khoob, yeh anjane tevar acche lage!
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