के साज पर सर्दियाँ गा रहीं
ओढ़ मोटी रजाई को लेटे रही
धूप, लाये कोई चाय की प्यालियाँ
हाथ की उंगलियों को मिले उष्णता
इसलिये थी बजाती रही तालियाँ
भोर कोहरे का कंबल लपेटे हुए
आँख मलती हुई आई अलसाई सी
ठिठुरनों में सिमटती हुई रह गई
झांक पाई न पूरब से अरुणाई भी
और हिमवान के घर से आई हवा
ऐसा लगता नहीं अब कहीं जा रही
पूर्णिमा वादियों में पिघल बह रही
रात पहने हुए शुभ्र हिम का वसन
कुमकुमों से टपकती हुई रोशनी
को लपेटे हुए धुंध का आवरण
राह निस्तब्ध, एकाकियत को पकड़
आस पदचिन्ह की इक लगाये हुए
पेड़ चुप हैं खड़े, शत दिवस हो गये
पत्तियों को यहाँ सरसराये हुए
शीत की ले समाधी नदी सो गई
तट पे ,अलसी शिथिलता लगा छा रही
तार बिजली के दिखते हैं मोती जड़े
स्तंभ पर चिपके फ़ाहे रुई के मिलें
देहरी चौखटें सब तुषारी हुईं
कोशिशें कर थके द्वार पर न खुलें
लान, फ़ुटपाथ,सड़कें सभी एक हैं
क्या कहाँ पर शुरू, क्या कहां पर खतम
एक मन ,इक बदन, एक जाँ हो गये
सब पहन कर खड़े श्वेत हिम का वसन
और हम थरथरा देखते रह गये
कहता टीवी कि लो गर्मियां आ रहीं
3 comments:
सुन्दर कविता
बहुत अच्छा लिखा है राकेश जी। बहुत-बहुत बधाई।
इन पंक्तियों की उपमाएँ बहुत पसंद आईं।
तार बिजली के दिखते हैं मोती जड़े
स्तंभ पर चिपके फ़ाहे रुई के मिलें
एक मन ,इक बदन, एक जाँ हो गये
सब पहन कर खड़े श्वेत हिम का वसन
ेधन्यवाद भावनाजी एवं प्रेमेन्द्र
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