ढूँढ़ते ढूँढ़ते थक गई भोर पर
मिल न पाये निमिष चाँदनी रात के
डायरी के प्रथम पॄष्ठ पर था लिखा
नाम जो, याद में झिलमिलाया नहीं
तट पे जमुना के जो थी कटी दोपहर
चित्र उसका नजर कोई आया नहीं
बूटे रूमाल के इत्र की शीशियाँ
फूल सूखे किताबों की अँगनाई में
चिन्ह उनका नहीं दीख पाता कोई
ढल रहे एक धुंधली सी परछाईं में
उंगलियों से हिना पूछती रह गई
कुछ भी बोले नहीं कंगना हाथ के
पॄष्ठ इतिहास के फड़फड़ाते रहे
कोई गाथा न आई निकल सामने
तट समय सिन्धु का पूर्ण निर्जन रहा
चिन्ह छोड़े नहीं हैं किसी पांव ने
ओढ़नी से गगन की सितारे झड़े
और कोहरा क्षितिज पर उमड़ता रहा
भाग्य शिल्पी लिये भौंथरी छैनियां
एक प्रतिमा का आकार गढ़ता रहा
और बुनती अमावस रही फिर निशा
दीप की बातियों पर धुआं कात के
क्यारियों में दिशाओं की बोते रहे
बीज, उग आयेंगी रंग की कोंपलें
साध सिन्दूर सी, केसरी कामना
सुरमई कल्पनाओं की कलिया खिलें
सींचे थी भावनाओं की मंदाकिनी
पर दिशा जोकि बंजर थी बंजर रही
रेख पतली सी संशय की जो एक थी
ऐसी उमड़ी कि बन कर समन्दर बही
नागफ़नियों के छोरों पे टिक रह गये
जितने सन्दर्भ थे सन्दली गात के
और बस ढूँढ़ती रह गई भोर नित
खो गये मित्र सब चाँदनी रात के
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9 comments:
राकेश जी बहुत सुन्दर है,विशेषकर ये पंक्तियाँ,
नागफ़नियों के छोरों पे टिक रह गये
जितने सन्दर्भ थे सन्दली गात के
और बस ढूँढ़ती रह गई भोर नित
खो गये मित्र सब चाँदनी रात के.
बहुत सुंदर रचना के लिये बधाई:
उंगलियों से हिना पूछती रह गई
कुछ भी बोले नहीं कंगना हाथ के
--वाह, क्या बात है!!
धन्यवाद समीर भाइ और रजनी.
आप के शब्द सदैव प्रेरणा देते हैं
आप की रचना पर क्या कहूं .. दुस्साहस होगा.. बस यही की मंत्रमुग्ध हॊ पढती गई..
Bahut hi sunder, Aapki kalam se nikle shabd amaratva praapt karte prateet hote hain.. maja aa gaya parh kar ..
राकेश जी ये रचना पढ़कर लगा जैसे वातावरण में मोती बिखरे हों कभी ऐसा लगा जैसे सुबह-सुबह उठकर ओस की बूँदों को छू लिया हो।वैसे अब तो टिप्पणी देने में भी डर लगता है कहीं समीर जी की टिप्पणियों से मैच ना हो जाये बहुत सोच समझ कर नये शब्द लाने पड़ेगें। बहुत-बहुत बधाई।
जब भी आप की रचना पढता हूं, एक बार में मन नही भरता हूं फिर पढता हूं.. शब्दों में छुपी गहरायी के तल तक पहुंचने की कोशिश करता हूं.
"ढूँढ़ते ढूँढ़ते थक गई भोर पर
मिल न पाये निमिष चाँदनी रात के
चित्र उसका नजर कोई आया नहीं
बूटे रूमाल के इत्र की शीशियाँ
फूल सूखे किताबों की अँगनाई में
चिन्ह उनका नहीं दीख पाता कोई
ढल रहे एक धुंधली सी परछाईं में"
रेत सी फिसल गयी जिन्दगी मेरे हाथ से
सब इधर उधर हो गये, जो थे मेरे साथ में
"नागफ़नियों के छोरों पे टिक रह गये
जितने सन्दर्भ थे सन्दली गात के"
अन्त में कहुंगा.. वाह वाह वाह्
bahut hi marmik!!
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