दिन की पूंजी

 दिन की  पूंजी

कितनी ही बार घिसी तीली   इक चुटकी भर उजियारे को
पर अंगनाइ के दीपक तो, अब केवल तिमिर उगलते हैं

हर  भोर उषा लेकर आइ सिंदूरि रंग सवेरों में
चढ़ते चढ़ते दोपहरी तक, वे जाते फ़िस्कल अंधेरों म
पश्चिम की सुरसा मुख फ़ैसला किरणों को लील लिया करती
यों थका दिवस खो जाता है रजनी के चिक़ुर घनेरों में

सूरमाइ भूल भूलैय्या में अक्सर ही भटके चित्र सभी
पलकों तक आने से पहले, सपने हर बार सुलगते है।

गति के चक्रों में उलझ उलझ साँसों के उधड़ रहे धागे
धड़कन बन एक भिखारी प्रहारों से पल पल भिक्षा माँगे
दिन की पूँजी का एक अंश अनजाने खर्च हुआ जाता
बाक़ी जो शेष रहा उसको कितने हैं हाथ बढ़े आगे

संचय की जीर्ण चदरिया से रिसते  जाते  हैं शनै शनै
उंगली  के पोरों से रिश्ते बालू   की तरह फिसलते हैं

बूढ़ी संध्या अंधियारे पथ पर खाड़ी रही लाठी टेके
हाथों को हाथ नहीं सूझे धुँधलाई नज़रें क्या देखे
झाड़ी ने निगल लिए जुगनू तारों खोए जा श्याम विवर
हर एक प्रतीक्षा शेष हुई अनवरत प्रतीक्षाएँ ले के

बुझते दीपक की लौ जाते   नयनों में काजल आँज गई
उससे ही मेघ घिरे प्रति पल कोरों से आज उमड़ते हैं

राकेश खंडेलवाल
सितम्बर २०२२ 

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