ओढ़े भोर गुलाबी चूनर
ओढ़े भोर गुलाबी चूनर
दिन की पूंजी
दिन की पूंजी
कितनी ही बार घिसी तीली इक चुटकी भर उजियारे कोपर अंगनाइ के दीपक तो, अब केवल तिमिर उगलते हैं
हर भोर उषा लेकर आइ सिंदूरि रंग सवेरों में
चढ़ते चढ़ते दोपहरी तक, वे जाते फ़िस्कल अंधेरों म
पश्चिम की सुरसा मुख फ़ैसला किरणों को लील लिया करती
यों थका दिवस खो जाता है रजनी के चिक़ुर घनेरों में
सूरमाइ भूल भूलैय्या में अक्सर ही भटके चित्र सभी
पलकों तक आने से पहले, सपने हर बार सुलगते है।
गति के चक्रों में उलझ उलझ साँसों के उधड़ रहे धागे
धड़कन बन एक भिखारी प्रहारों से पल पल भिक्षा माँगे
दिन की पूँजी का एक अंश अनजाने खर्च हुआ जाता
बाक़ी जो शेष रहा उसको कितने हैं हाथ बढ़े आगे
संचय की जीर्ण चदरिया से रिसते जाते हैं शनै शनै
उंगली के पोरों से रिश्ते बालू की तरह फिसलते हैं
बूढ़ी संध्या अंधियारे पथ पर खाड़ी रही लाठी टेके
हाथों को हाथ नहीं सूझे धुँधलाई नज़रें क्या देखे
झाड़ी ने निगल लिए जुगनू तारों खोए जा श्याम विवर
हर एक प्रतीक्षा शेष हुई अनवरत प्रतीक्षाएँ ले के
बुझते दीपक की लौ जाते नयनों में काजल आँज गई
उससे ही मेघ घिरे प्रति पल कोरों से आज उमड़ते हैं
राकेश खंडेलवाल
सितम्बर २०२२
पतझड़ वषुव ( Fall Wquinox )
एक तिहाई सितम्बर बीत
चला है विषुव का दिन क़रीब ही है। दिन भर फैली हुई धूप की चादर सिमटती जा रही है
और रात का आँचल आकाश को धीरे धीरे ढकने लगा है तो मौसम का आग्रह हुआ की इस बेला
में ऋत परिवर्तन पर कहा जाए ।
सोचा तो यही था किंतु सुबह चाय पीते हुए
संदेश देखने लगा तो फ़ेसबुक और वहात्सेप्प समूहों पर उपलब्ध अतुलनीय कृतियाँ देख
कर उँगलियों से कलम छोट गई और मन महान रचनाकारों के वंदन में लग गया
महाकवि, साहित्यकार ही
तुमको मेरे शत शत वंदन
तुम लिखते हो एक दिवस में कम से कम बारह
रचनाएँ
तीन ग़ज़ल गाईं, गीत चार हैं तीन लीक, दो व्यंग कढ़ाएँ
हर समूह के खुले पटल पर चित्र तुम्हारा
जी अंकित है
तुम बतलाते रहते सबको, कहाँ तुम्हारी है चर्चाएँ
हर हफ़्ते नव खंड काव्य का
करते हो तुम ही तो सर्जन
व्हटसेप्प के हर समूह में तुम मौजूद रहा
जरते हो
ग्रुप के नियम सदा ही अपने ठेंगे पर धर
कर चलते हो
जिस रचना पर तुम्हारा, जिस गोष्ठी में शामिल हो तुम
नित्य धड़ल्ले से तुम ये सब अग्रेषित
करते रहते हो
तुम सचमुच साहित्य प्रणेता
स्वीकारो मेरा अभिनंदन
वेद व्यास की अमर लेखनी के तुम ही
उत्तराधिकारी
दिनकर, पंत, प्रसाद सभी बस जाएँ तुम पर ही बलिहारी
सूरा में अवतार नए तुम, मीरा ने सिखलाया गायन
पल पल नव सर्जन करने की लगी एक तुमको
बीमारी
जलन विचारी मेरी, करती कविवर
आज तुम्हें सम्पूर्ण समर्पण
शत शत तुमको हैं अभिनंदन
वह प्यार नहीं कर सकता
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
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प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
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हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
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जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...