सोचा मैंने गीत लिखूँ इक
संवरा नहीं किंतु मुखड़ा भी
शब्द-विषय रह गए सुनाते
बस अपना अपना दुखड़ा ही
विषय सामने पंक्ति बनाकर
वर्तमान के, खड़े हुए थे
वातावरण, युद्ध की घटना
स्वास्थ्य समस्या अड़े हुए थे
भूख, ग़रीबी, बेकारी सब
बार बार खुद को दोहराती
सत्ता की छीनाझपटी में
आपस में सब लड़े हुए थे
विषय प्राथमिकता को लेकर
करते रहे सिर्फ़ झगड़ा ही
और एक दूजे से ज़्यादा
रहे सुनाते बस दुखड़ा ही
शब्द परस्पर प्रतिद्वंदी थे
लिए अस्मिताएँ भाषा की
पारम्परिक शुद्धता लेकर
गयी संवारी अभिलाषा की
नई दिशा के अधर पैरवी
करते नई किसी संस्कृति का
बात उठाता रहा दूसरा
धरोहरों की, परिभाषा की
इस असमंजस में जो उपजा
प्रश्न, रहा वह भी तगड़ा ही
शब्द-व्याकरण लगे सुनाने
केवल बस अपना दुखड़ा ही
फिर उठ गई दूसरी बातें
छोड़े गीतों की परिपाटी
नयी भोर में प्रज्ज्वल करनी
केवल नव गीतों की बाती
हो तुकांत या मुक्त छंद हो
या फिर हो प्रयोग अनजाना
सरगम हो कितनी आवश्यक
वाणी में, जो गीत सुनाती
रही लेखनी असमंजस में
बढ़ता रहा और पचड़ा ही
गीत नहीं सँवरा कोई भी
बढ़ा शब्द का बस दुखड़ा ही
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