वर्तमान की दीवारों पर

 

वर्तमान की दीवारों पर
टाँक रहे हो तुम अतीत को
जिस पर लिखी इबारत पूरी
मिटा चुकी है रबर आज की

राजपथों के मोटे अजगर
लील चुके है
चौपालें पनघट पगडंडी
खलिहानों में तोड़ रही दम
उत्सव वाली
रेशम चूनरिया की झंडी

लौटा कर ले जाते अपने
शब्द उसी उजड़ी वीथी में
जिसे खंडहर बना चुकी है
करवट इस बदले समाज की

पीढ़ी है अनभिज्ञ आजकल
क्या होती हैं
दादी नानी कहें कहानी
वेद पुराण उपनिषद गाथा
उनके  अपने
माँ पापा से भी अनजानी

मोड़ चुकी मुख नई सभ्यता
अंधनुकरन कर रहे अपने
तौर तरीक़े, पश्चिम वाले
हर अंधे बहरे रिवाज की

सिमट गए सब रिश्ते नाते
Iइक आयत में
जो आ थमा हाथ सब ही के
ख़ुशी और त्योहार
हो रहे अब
अग्रेषित हो हो कर फीके

है पूरा विस्तार विश्व का
रुका उँगलियों के कोरों पर
लेकिन फिर भी रही अपरिचित
सुधियाँ, अपने एक आज की

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