तुम निरंतर बुझ रहे हो

ओ बटोही प्राण में धधकी हुई ज्वालाएँ लेकर
ये बताओ किसलिए अब तुम निरंतर बुझ रहे हो

दीप प्राणों का रखो प्रज्ज्वल, तुम्हीं को तम हटाना
ये युगों से जो घिरा कोहरा तुम्हें अब चीरना है
श्वास में झंझायें  भर कर ये घिरे बादल हटाने
इक नए उजियास की नूतन फसल को सींचना है

घोल कर संकल्प में विश्वास निश्चय तो करो तुम
कल नया युग आएगा पथ में अभी क्यों रुक रहे हो

देखते हो एकलव्यों को उपेक्षित आज भी तुम
आज तुमको देवदत्तों से नया उद्घोष करना
जाति  की औ रंग की या धर्म की रेखा खिंची जो
वे मिटा कर नव दिवस में एक नूतन रंग भरना

तोड़ कर हर व्यूह को है अग्रसर होना डगर पर
देख कर इक मेड़ छोटी सी कहो क्यों झुक रहे हो

लक्ष्य के सम्मुख सभी भ्रम यक्ष प्रश्नो के हटे हैं
चूमते गिरि  शृंग आकर पंथ में बढ़ते कदम को
हों भले राहे अदेखी  बढ़  चलो जीवंत होकर
है प्रतीक्षित हर सफलता  बस  तुम्हारे ही  वरण को

कंठ में रोको नहीं स्वर की उमड़ती अब नदी को
दो उसे निर्बाध बहने, आज तक हो चुप रहे हो

1 comment:

Udan Tashtari said...


घोल कर संकल्प में विश्वास निश्चय तो करो तुम
कल नया युग आएगा पथ में अभी क्यों रुक रहे हो

-आज इसी सकारात्मक सोच की जरूरत है। अद्भुत रचना।

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