क्या करोगे अब बनाकर

क्या करोगे अब बनाकर स्वप्न के फिर से घरोंडे
रात के ढलते पलों तक जब कोई टिकता नही है

कब तलक दोगे दिलाए है अँधेरा रात भर का
एक युग बीता ,तिमिर जो घिर गया छंटता नहीं है
सुन रखा था दस बरस में भाग्य भी करवट बदलता
पर यहाँ का , ​अंगदी है पाँव जो टलता नहीं है


फायदा क्या बीज बो​ने ​का पठारी बंजरो में
जब यहां पर दूब का तिनका तलक  उगता नही है

वक्त की अंगड़ाइयाँ ने रख दिया सब कुछ बदलकर
पर तुम्हारी ही गली में समय थम कर रह गया है
उड़ चुके पाखी प्रवासी फिर पलट कर नीड अप​ने ​
तुम अभी भी सोचते हो कौन कल क्या कह गया है 

क्या करोगे तुम बनाकर एक वह इतिहास फिर से
पृष्ठ तिमिराये हुए जिसके कोई पढ़ता नही है

युग बदलता  जा रहा पर तुम खड़े अब तक वहीं हो 
जिस जगह पर कोई पाँखुर उड़ कहीं से आ गई थी 
सारिणी में ढल रहे दिन की अभी भी खोजते हो 
भोर में जिन सरगमों को सोन चिड़िया गा गई थी 

क्या करोगे अब बनाकर, चित्र झालर पर हवा की
कोई झोंका इक निमिष भी जब कहीं रुकता नहीं है 

राकेश खण्डेलवाल

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