जीवन पथ पर पल पल उगती रही लालसा इक मंज़िल की
इस मंज़िल पर आकर पाया मन्ज़िल ढूंढ रही खुद मंज़िल
थी मरीचिकाओं में लिपटी इस मंज़िल पर आती राहें
झंझाओ की भूलभुलैया पल पल पर डाले थी डेरे
यात्रा में पाथेय नीङ का कोई अंतर शेष नही था
पता नही था सांझ ढली कब और किस घड़ी उगे सवेरे
इस मंज़िल पर आकर यह मन प्रश्न स्वयं से ये करता है
इस मअंजिल की बहॉग दौड़ में क्या कुछ तुझे हुआ है हासिल
मोड़ मोड़ पर झंझाओ से जूझा एकाकी यायावर
बोता रहा कदमतलियों में लाकर सूरज चांद सितारे
पार किये अनगिन कंटक वन फूल सजाने को इस पथ पर
यज्ञ परीक्षा की आहुति में होम किये सब स्वप्न सँवारे
थी असाध्य जो और असंभव करते रहे तपस्याएं वे
किंतु एक बादल का टुकड़ा भी छाया को न पाया मिल
इस मंज़िल पर आकर जाना, हर इक मंज़िल दिवास्वप्न है
धुँधलाये दर्पण में तिरती किसी धुंये की परछाई सी
करती है सम्मोहित मन को सुखद सुनहरे सपने दर्शा
मौन किसी निर्जन में बजती हो प्रतीत एक शहनाई सी
मंज़िल की राहों पर चलकर पा जाता हर कोई मंज़िल
कोई पाए मनचाही तो बने किसे की भटकन मंज़िल
1 comment:
वाह !!
बहुत खूब !
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