उम्र ढलते ही

छंट गई है गर्द सारी आइने से यकबयक ही
उम्र ढलते ही दिखा है सत्य हर परदा हटा कट

दम्भ अपने बाजुओं का कर समर्पण चुप खड़ा है
धुंध में डूबी नजर रह रह पलक को 
​मि​
​मि​
चाती
कान का 
​है 
ध्यान सारा द्वार की चुप सांकलों पर
डाकिया आ खटखटाये हाथ 
​में 
 
​ले 
 
​को
ई पाती

तोड़ परिचय राह चल दी उम्र के इस मोड़ से
​,​
 अब
दृष्टि  में उभरे नहीं है कोई चेहरा मुस्कुराकर 

​मंज़िलों की सीढ़ियां भी मांगती विश्राम प्रतिपल 
दिन निकलते पूछता है सांझ कितनी दूर है अब 
दोपहर रखकर हथेली आँख पर ताके दिशाएँ 
बादलों की पालकी ले छाँह को, आ पाएगी कब

हर कदम आगे बढा  है इक असीमित बोझ लेकर 
कोई शायद नाम ले ले  ​दूर से उसको बुलाकर 

उम्र ढलते ही हुये  हैं स्वप्न सारे पतझड़ी वे
जो सजे चढ़ती उमर के नयन में आ गुलमोहर से
प्रश्नचिह्नों की लगी है अनवरत लम्बी कतारें
औऱ उत्तर है तिरोहित जिंदगी की पुस्तको से

 ग्रीष्म के इक मरुथली नभ सा तिरा है शून्य केवल 
स्पर्श कुछ देती हैं हैं अब हवा भी गुनगुनाकर 

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