फ़ायलों में उलझते रहे जब नयन
कुंजियों पे रहीं दौड़ती उंगलियाँ
मीटिंगों के बुलावे खड़े पंक्ति में
और सुई
याँ
घड़ी की बनी तितलियाँ
संगणक के मेरे दृश्य पट पर प्रिये
चित्र केवल तुम्हारे उभरते रहे
और सप्याह-महिने मेरे दिन सभी
शाख से साल की टूट झरते रहे
ट्रेन में अपने कम्यूट में यों लगे
तुम मेरे पास ही सीट पर हो बसी
डालती जा रहीं मुझपे सम्मोहिनी
सांस में भर उगी भोर की ताजगी
यों समय तो निरंतर गति में रहा
पर मेरे सामने चित्र इक ही बना
तुम रहे टाँकते प्राण उस बिम्ब में
नैन के मेरे आकाश पर जो तना
जब हवा की चढ़ी पालकी से उतर
धूप आकर मेरा मुख लगे चूमती
तो लगे है तुम्हारी पंखुर उंगलियाँ
होंठ की भर छुअन गाल पर झूमती
नभ पे बादल की अठखेलियाँ देख कर
यों लगे जैसे तुम नृत्य हो कर रहीं
मेरे अस्तित्व पर डाल अभिमंत्रणा
एक अध्याय नव प्रीत का रच रही.
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