घुल गए परछाइयों में चित्र थे जितने
प्रार्थना में उंगलियाँ जुडती रहीं
आस की पौधें उगी तुड्ती रहीं
नैन छोड़े हीरकनियाँ स्वप्न की
जुगनुओं सी सामने उड़ती रहीं
उंगलियाँ गिनने न पाईं दर्द थे कितने
फिर हथेली एक फ़ैली रह गई
आ कपोलों पर नदी इक बह गई
टिक नहीं पाते घरोंदे रेत के
इक लहर आकर दुबारा कह गई
थे विमुख पल प्राप्ति के सब,रुष्ट थे इतने
इक अपेक्षा फिर उपेक्षित हो गई
भोर में ही दोपहर थी सो गई
सावनों को लिख रखे सन्देश को
मरुथली अंगड़ाई आई धो गई
फिर अभावों में लगे संचित दिवस बंटने
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