सरगमों की गली से गुजरते हुये रागिनी बो लो संगीत में
शब्द होठों से खुद ही झरें, एक गरिमा भरो गीत में
दिन के अख़बार की सुर्खियाँ
काव्य होती नहीं जान लो
व्यंग से तंत्र के बन्ध को
ध्यान देकर के पहचान लो
दूर कितना चलेंगी कहो
सामने आई तुकबन्दियाँ
काव्य होती नहीं जान लो
राजनीतिक कसी फ़ब्तियाअँ
शब्द अनुप्रासमय छन्द के हों नहाये हुये प्रीत में
मन के तारों को छू ले तनिक, एक गरिमा भरो गीत में
दिन ढला पीर मन में उगी
ओढ़नी सांझ की ओढ़कर
रात नींदे चुरा ले गई
पास एकाकियत छोड़कर
ये व्यथा कितनी दुहरा चुके
अब सँवारो वे अनुभूतियाँ
शून्य से झांकती जो रहीं
कोई दे पाये अभिव्यक्तियाँ
कुछ मिलन, कुछ विरह, अश्रु कुछ, फिर ना उलझो इसी रीत में
शब्द होठों से खुद ही झरें, एक गरिमा भरो गीत में
शब्द जो ढालते छन्द में
अर्थ उनके समझ कर लिखो
दर्पणों में बने बिम्ब से
अक्षरों में उतर कर दिखो
तब ही संप्रेषणा के सिरे
खुद ब खुद सारे जुड़ जायेंगे
गाऒ तुम जो खुले कंठ से
स्वर सभी उसको दुहरायेंगे
चीर देखो भरम दृष्टि के फर्क दाधि और नवनीत में
स्वर स्वयं आके जुड़ जाएंगे. एक गरिमा भरो गीत में
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