शहर की उस वीरान गली में जहां हमारा बचपन बीता
अभी तलक पीपल के नीचे रखा एक सिंदूरी पत्थर
वो पीपल जिसने सौंपी थी उलझी हुई पतंगें हमको
जिसकी छाया में संध्या में रंग भरे कंचे ढुलके थे
जिसकी शाखा ने सावन की पैंगों को नभ तक पहुंचाया
जिसके पत्रों की साक्षी में शपथों के लेखे संवरे थे
उसकी आंखें अभी तलक भी बिछी हुई हैं सूने पथ पर
शहर की उस वीरान गली में नहीं गूंजते हैं अब पद स्वर
उस पीपल की बूढ़ी दाढ़ी में उलझी सूतों की डोरी
जिन्हें मन्नतों ने मावस की छतरी के नीचे बांधा था
तन पर टके हुए लगते हैं धूमिल वे सब स्वस्ति चिह्न अब
नत होते शीशों ने जिनको साँझ सवेरे आराधा था
शेष नहीं है आज किन्तु अब चावल भी आधी चुटकी भर
किंकर्तव्यविमूढ़ा है मन दिन की इस बदली करवट पर
शहर की उस वीरान गली का नक्शे में भे एचिह्न न बाकी
जिसमें फ़ागुन की फ़गुनाहट गाती थी निशिदिन चंगों पर
संझवाती का दिया जहाँ से निशि को दीपित कर देता था
मंत्रों के स्वर लहराते थे मंदिर के गुंजित शंखों पर
शह्र की उस वीरान गले एकी याद अचानक यों घिर आई
बिना पते का पत्र डाकिया लाया हो जैसे लौटा कर
2 comments:
बहुत ही उम्दा भावाभिव्यक्ति....
आभार!
इसी प्रकार अपने अमूल्य विचारोँ से अवगत कराते रहेँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत ही उम्दा
Post a Comment