मेरी आतुर आंखों में हैं, रेखाचित्र उन्हीं सपनो के
जिनमें उगते हुये दिवस की धूप खिली रहती सोनहली
अम्बर में तिरते बादल से प्रतिबिम्बित होती कुछ किरणें
रच देती हैं दूर क्षितिज पर सतरंगी इक मधुर अल्पना
जिनमें अंकित हुई बूटियाँ नई कथाये जन्मा करती
उस स्थल से आगे हो जाती जहाँ सहज अवरुद्ध कल्पना
वे अनकहे कथानक मेरी सुधियों के द्वारे पर आकर
अकसर बन जाया करते हैं पंक्ति गीत की मेरे पहली
बदल रहे मौसम की करवट परिवर्तित करने लगती है
पुरबाई को छूकर, उत्तर दिशि से आती सर्द हवायें
उस पल सिहरे भुजपाशों में एक सुखद अनुभूति सहज आ
जिसकी अँगड़ाई से जागा करती है< सहस्त्र शम्पायें
मेरी आतुर आंखों में है चित्र उसी की परछाई के
जिसके दृष्टि परस की खातिर रहती व्यग्र आस इक पगली
चलते चलते घिरी भीड़ में बढ़ने लगा एकाकीपन
गूंजा करते हैं उस क्षण में मौन हुये सन्नाते के सुर
उनसे बन्धी हुई सरगम की लहरी में अठखेली करते
आरोहों की अवरोहों की सीढ़ी पर चढ़ते दो नूपुर
मेरी आतुर आंखों में हैं झिलमिल करते वे ही नूपुर
जिनको छूते ही मावस की रंगत भी होती रोपहली
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