सांस का ऋण बढ़ रहा है सूत्र कुछ नूतन बना कर
कम नहीं होता तनिक भी चाहे जितना भी घटायें
एक प्रतिध्वनि कान में आकर निरन्तर गूँजती है
चेतना जब चीन्ह न पाती तो परिचय पूछती है
उत्तरों के पृष्ठ कोरे, सामने आकर उभरते
और गुत्थी, गुत्थियों से ही पहेली बूझती है
प्रश्न के जब उत्तरों में प्रश्न ही मिलते रहे हों
उत्तरों को उत्तरों की हैं कहाँ संभावनायें
गल्प सी लगने लगी हर इक कथा सौगंध वाली
टोकरी, संबंध के धागों बुनी है आज खाली
जो हुए अनुबन्ध, वे अनुबन्ध थे परछाईयों के
उड़ गई कर्पूर बन कर आस ने जो आस पाली
रेत के कण आ सजाते हाथ के रेखागणित को
बिन्दुओं के बीच उलझी रह गई हैं कल्पनायें
दॄष्टि को सीमित किये अपराधिनी बाधायें आकर
सरगमों की तान पकड़े मौन हँसता खिलखिलाकर
कक्ष की घड़ियाँ थकीं, विश्रान्तो ओढ़े सो गई हैं
रक्तवर्णी हो रहा एकान्त का मुख तमतमाकर
पंथ पर फ़ैले हुए हैं केश बस तम के घनेरे
भूल जाते राह सपने, नयन आ कैसे सजायें
1 comment:
रचना अच्छी है भाई ।Seetamni. blogspot. in
Post a Comment