शब्दों की निष्प्राण देह में सींच भावनाओं का अमृत
देती है अमरत्व कलम जो, उसको सहज नमन है मेरा
कल कर चुका आज जिनको कल ही इतिहासों के गतिक्रम में
अपने अंत:स को उलझाकर, छलना के मरुथलिया भ्रम में
उन शब्दों को, उन भावों को फ़िर से देकर स्पर्श सुकोमल
पंक्तिबद्ध कर बिठला देती है जो उन्हें सजा इक क्रम में
वह इक कलम अलौकिक, भाषा के आशीषों का प्रसाद है
मिथ्या है उसके प्रवाह को कोई कहे, सृजन है मेरा
ढलते हुए दिवस की सलवट में दब कर जो खो जाते हैं
गिर कर पथ की पगतलियों में अनदेखे जो रह जाते हैं
वे पाटल शब्दों के फूलों के जो गिर जाते मुरझाकर
छूकर जिसकी उंगली जीवन का कुछ अर्थ नया पाते हैं
वही कलम जो रही कहलवा अकस्मात ही सब अधरों से
मैं भी यह कहना चाहा था, सचमुच यही कथन है मेरा
किन्तु कलम जो रही खींचती बस आड़ी तिरछी रेखायें
अंधियारे को दे न सकीं हैं जो पूनम की कभी विभायें
देती रहें अपरिचय-परिचय के द्वारे पर जाकर दस्तक
पल ही सही, मूल्य लेकर भी बस उस्नकी स्तुतियाँ गायें
बुझते हुये दीप की लौ सी भड़क अंधेरों में खो जातीं
नहीं ज्योति का अंश बन सकें, उनको बस बिसरन है मेरा
2 comments:
क्या बात है...अद्भुत!!
शब्द कहेंगे सबकी बातें।
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