रह गईं हैं पगनखों तक दृष्टि की सीमायें सारी
नीड़ में बन्दी हुई है कूक कोयल की बिचारी
रख लिये हैं व्योम ने धारे हवा के,पास अपने
द्वार पर ठहरी हुई एकाकियत की आ सवारी
और छिटकी रश्मियों की इक किरण आ खिड़कियों पे
लग रहा सन्देश कोई दे रही है, पर अधूरा
भोर तकती है धुंआ उठता हुआ बस प्यालियों से
चाय की, पर पढ़ नहीं पाती लिखे आकार उसके
दोपहर को भेजती है नित निमंत्रण बिन पते के
देखती रहती अपेक्षा में निराशा आये घुल के
ध्यान को कर केन्द्र तकती कान फिर अपने लगाकर
छेड़ता शायद कहीं पर कोई तो हो तानपूरा
सीढ़ियाँ चढ़ते दिवस की पांव फ़िसले हैं निरन्तर
कौन सी आरोह को अवरोह को पादान जाये
धूप के टुकड़े उठा कर कंठ पीता है निरन्तर
कर नहीं पाता सुनिश्चित कौन सा वह राग गाये
उंगलियों की पोर पर आकर चिपकता दिन ढले से
स्वप्न की हर इक किरच का हो गया जो आज चूरा
आ रहीं आवाज़ मन के द्वार तक चल कर कहीं से
किन्तु कोई एक जो सुन पाये वह मिलती नहीं है
कामनायें बीज बोकर सींचती हर एक पल छिन
क्यारियों में इक कली चाही हुई खिलती नहीं है
कामना थी जिस जगह पर मुस्कुरायेगी चमेली
उस जगह पर आ टिका है एक सूखा सा धतूरा
3 comments:
Extremely beautiful!
है तरंग निर्बाध, सज धज चली अनन्ता।
निःशब्द!!
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