पीठ पर जो गिलहरी के खींची गई
हम उसी रेख की चाह करते रहे
दिन की शाखाओं पर पत्तियां में बसा
आस की चाहना सिर्फ़ रँगते रहे
जानते थे नहीं जोड़ पाती शिला
तकलियों पे कते सूत की डोरियां
और सोती नहीं है दुपहरी कभी
चाहे जितनी सुनाते रहें लोरियां
फ़िर भी अपने ही वृत्तों में बन्दी रहे
दोष पर दूसरों पर लगाते रहे
फ़र्क अनुचित उचित में किया था नहीं
दृष्टि अपनी कसौटी रखी मान कर
शब्द अपने ही हैं स्वर्ण से बस मढ़े
हमने कर पल रखा है यही मान कर
जिन पुलों से गुजर कर सफ़र तय किया
अपने पीछे उन्हीं को जलाते रहे
और निज कोष की रिक्तता देख क्लर
शुष्क आंखों के आंसू बहाते रहे
भूल से भी कहीं सत्य दिख ना सके
आईने से नजर को चुराते रहे
सूर्य को दोष देते रहे है सदा
पांव घर के ना बाहर कभी थे रखे
चांदनी हमसे करती रही दुश्मनी
गांठ ये बांध कर अपने मन में रखे
हम अनिश्चय की परछाईयों से घिरे
तय ना कर पाये क्या कुछ हमें चाहिये
अनुसरण अपनी हाँ का सदा ही किया
और बाकी रखा सब उठा हाशिये
और धृतराष्ट्र का आवरण ओढ़ कर
खेल विधना का कह, छटपटाते रहे.
2 comments:
राह वहीं थी, पग पथराये।
क्या बात है !
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