तुमने आंसू ही सदा सौंपे हैं इन आँखों को
आज दो पल को भले, होंठ को ,मुस्काने दो
तुमसे जितनी भी अपेक्षाएं थीं अधूरी रहीं
पास रहकर भी सदा बढ़ती हुई दूरी रही
एक धारा ने हमें बाँध रखा है केवल
वरना तट जैसी सदा मिलने की मज़बूरी रही
तुमने आशाएं बुझाईं हैं भोर-दीपक सी
आज संध्या के दिए की तरह जल जाने दो
भावनाओं की पकड उंगली चला जब उठ कर
शब्द हर बार रहा कंठ में अपने घुट कर
अनकहे भाव छटपटाते हैं बिना कुछ बोले
जैसे आया हो कोई दोस्त से अपने लुट कर
मेरे स्वर पर हैं रखे तुमने लगा कर ताले
आज खुल कर के मुझे गीत कोई गाने दो
पंथ में घिरते रहे मेरे, अँधेरे केवल
मेरापाथेय भी करता है रहा मुझ से छल
वक्त द्रुत हो गया परछाइयाँ छू कर मेरी
पोर उंगली के नहीं छू भी सका कोई पल
तुमने बांधे हुए रक्खा है नीड़ में अपने
आज तो मुक्त करो, मुझको कहीं जाने दो
1 comment:
बहुत प्यारी कविता, हम चाहते यहीं है, बस शब्द नहीं मिल पाते हैं।
Post a Comment