जितने आशीष के शब्द हमको मिले
राज्य की नीतियों के कथन हो गये
ज़िन्दगी की पतंगें हवा मेंउड़ीं
वक्त मांझा लिए काटता ही गया
दिन का दर्जी लिये हाथ में कैंचियाँ“
रात के स्वप्न सब छाँटता ही गया
बह गईं जो हवायें कभी मोड़ से
लौट कर फिर इधर को चली ही नहीं
बुझ गये भोर में दीप की बातियाँ
सांझ कहती रही पर जली ही नहीं
पौष की रातके पल सजाये हुये
जेठ की धूप जैसी तपन हो गय
हर उगी भोर बुनती रही आस को
दोपहर थाल भर धूप ले आयेगी
छाई ठिठुरन हवाओं भरे शीत की
चार पल के लिये थोड़ा छँट जायेगी
पर जो सूरज के रथ का रहा सारथी
चाल अपनी निमिष पर बदलता रहा
और गठबन्धनों की दिवारें उठा
सिर्फ़ आश्वासनों से ही छलता रहा
और हम आहुति ले चुके यज्ञ की
राख में दब के सोई अगन हो गये
पंथ ने जो निमंत्रण पठाये हमें
थे अपेक्षाओं की चाशनी में पगे
नीड़ के थे दिवास्वप्न बोये हुये
उनके आधार को कोई गमले न थे
पांव की थी नियति एक गति से बँधी
बिन रुके अनवरत जोकि चलती रही
उम्र अभिमंतर पासों पे डाले हुये
खेलते खेलते हमको छलती रही
पास के शब्द स्वर में नहीं ढल सके
थरथराते अधर की कँपन हो गये
2 comments:
Bahut hee sunder kavita Guruji!
भाव प्रवाहित करती रचना..
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