फिर चुनाव की रुत आई


फिर चुनाव की रुत आई
 
रोपे जाने लगे बीज गमलों में फिर आश्वासन के
अपने तरकस के तीरों पर धार लगे लेखक रखने
अंधियारी गलियों में उतरी मावस के दिन जुन्हाई
बंजरता  को लगे सींचने देव सुधाओं के झरने
चांदी के वर्कों से शोभित हुई देह की परछाई
फिर चुनाव की रुत आई
 
बूढ़े बिजली के खम्भों पर आयी सहसा तरुणाई
पीली सी बीमार रोशनी ने पाया फिर नवयौवन
चलकर आई स्वयं द्वारका आज सुदामा के द्वारे
तंदुल के बिन लगा सौंपने दो लोकों को मनमोहन
सूखे होठों ने फिर कसमें दो हजार सौ दुहाराईं
फिर चुनाव की रुत आई
 
बनी प्याज के छिलकों सी फिर लगी उधड़ने सब परतें
बदलीं जाने लगी मानकों की रह रह कर परिभाषा
जन प्रतिनिधि  फिर आज हुए हैं तत्पर और हड़प कर लें
जन निधियों का शेष रह गया संचय जो इक छोटा सा
हुईं पहाड़ की औकातें भी आज सिमट कर के राय
फिर चुनाव की रुत आई
 
लगीं उछलने गेंदें आरोपों की प्रत्यारोपों की
चौके छक्के लगे उड़ाने कवि मंचों से गा गाकर
उठे ववंडर नये चाय की प्याली में फिर बिना रुके
अविरल धारा लगा बहाने वादों का गंगासागर
धोने लगा दूध रह रह कर फिर चेहरों की   कजराई
फिर चुनाव की रुत आई
 

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

न ठंडी, न गर्म, बस सम्मोहन की रितु..

ATAMPRAKASHKUMAR said...

"फिर चुनाव की रुत आई " आप का यह गीत वास्तविकता से भरपूर है |बड़ी सहजता से आप ने अपनी बात प्रस्थापित की है |साधुवाद |
श्रीमान जी मैं आप को अपने ब्लॉग पर सादर आमंत्रित करता हूँ |http//kumar2291937.blogspot.com मेरी ग़ज़लों पर आप की टिपणी अवश्य देने का कष्ट करें |धयवाद

Shardula said...

सोमवार को इस ब्लॉग पे कुछ नया न हो ऐसा शायद कभी भी नहीं हुआ है.
आज आपने 'गीतकार की कलम' पे दोसौवां गीत लिखा है पर यहाँ भी कुछ तो होना ही चाहिए:)
आपकी ही दो पंक्तियाँ लिख रही हूँ:
"मुख मंडल पर बिखराकर कुछ मुस्कानें इक कविता पढ़िए
आगत के कुछ नये छंद की नई-नई संरचना करिए
"
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