जाने क्यों हर गीत अचानक लगता है रह गया अधूरा
जाने क्यों लगता है कह कर भी कुछ तो कहना है बाकी
जाने क्यों लगता है मदिरा सुधि ने जितनी पी है कम है
जाने क्यों लगता है प्याला छोड़ रही है रीता साकी
जाने क्यों लगता है मुट्ठी बन्द, अभी भी खुली हुई है
जाने क्यों लगता है सपबा और एक बनना नयनों में
जाने क्यों लगता है अब भी है श्रंगार अधूरा मन का
जड़े कल्पनाओं में , बाकी शेष अभी है कुछ गहनों में
जाने क्यों लगता है बातें मेरी अभी अधूरी हैं सब
यद्यपि निशा लगी है ढलने तुमसे वे सब कहते कहते
जाने क्यों लगता है मन का पर्वत अब भी है वैसा ही
चाहे वर्षों बीत गये हैं एक पीर में उसे पिघलते
जाने क्यों लगता है परिचय के पश्चात अपिरिचित हो तुम
जाने क्यों लगता है मेरे होकर, नहीं हुए तुम मेरे
जाने क्यों लगता है हर एक रोज उषा आती है जब जब
सूरज के सँग ले आती है और उमड़ते घने अँधेरे
जाने क्यों लिखकर भी ऐसा लगता, लिखा नहीं है कुछ भी
जाने क्यों हर बार शब्द ये मेरे, अक्षम हो जाते हैं
तुम यदि समझ सको तो आकर मुझको भी बतलाते जाना
कहाँ छन्द बनने से पहले भाव ह्रदय के खो जाते हैं
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6 comments:
शीर्षक का मतलब नहीं समझ सके,
गीत अच्छा लगा !
बहुत खूब भाई जी !
"जाने क्यों लगता है मन का पर्वत अब भी है वैसा ही
चाहे वर्षों बीत गये हैं एक पीर में उसे पिघलते"
इन दो पंक्तियों पर ही ठहर गया मन । मैं भरसक इस पीर का अनुभव करना चाहता हूँ जो मन के पर्वत प्रदेशों को पिघला सके । पर हाय ! जो मन को पिघला दे ऐसी पीर कहाँ से लाऊँ ?
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bahut kam log hi aise hote athva bache hain is zamaane me jinhen lagta hai ki zindgi abhi adhoori hai, kaam abhi adhoora hai, paripoorna nahin hai..varna zyadatar toh aatmmugdh hi rahte hain
rakeshji tussi great ho....
waah !
waah !
kya khoob likha
gazab likha
badhaai mere dil se..........
जाने क्यों लगता है बातें मेरी अभी अधूरी हैं सब
यद्यपि निशा लगी है ढलने तुमसे वे सब कहते कहते
जाने क्यों लगता है मन का पर्वत अब भी है वैसा ही
चाहे वर्षों बीत गये हैं एक पीर में उसे पिघलते
bahut khub,lafz nahi mil rahe kuch kehne,bahut sunder rahcana
"जाने क्यों लगता है मदिरा सुधि ने जितनी पी है कम है
जाने क्यों लगता है प्याला छोड़ रही है रीता साकी" -- ओह !
"जाने क्यों लगता है मुट्ठी बन्द, अभी भी खुली हुई है" --वाह ! A beautiful metaphor!
"जाने क्यों लगता है अब भी है श्रंगार अधूरा मन का
जड़े कल्पनाओं में , बाकी शेष अभी है कुछ गहनों में"--- ये अति सुन्दर !
"जाने क्यों लगता है बातें मेरी अभी अधूरी हैं सब
यद्यपि निशा लगी है ढलने तुमसे वे सब कहते कहते!"... इतनी बातें हैं ??:))
"जाने क्यों लगता है मन का पर्वत अब भी है वैसा ही
चाहे वर्षों बीत गये हैं एक पीर में उसे पिघलते" --बस नमन इन पंक्तियों पे
"जाने क्यों लगता है परिचय के पश्चात अपिरिचित हो तुम
जाने क्यों लगता है मेरे होकर, नहीं हुए तुम मेरे" -- ओह !
"तुम यदि समझ सको तो आकर मुझको भी बतलाते जाना" -- ये सही है :)
सादर शार्दुला
३० जुलाई ०९
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