लगे उमड़ने आशंका के बादल मन के नील गगन पर
जिसे संवारा तुमने स्वर से वह तो मेरा गीत नहीं था
नैन हुए अभ्यस्त देखते टूट बिखरते बनते सपने
पथ को ज्ञात न पदरज कोई उसे नया जीवन द्वे देगी
छत को विदित न कोई कागा बैठेगा आकर मुंड़ेर पर
मेघदूत की अभिलाषा में अंगनाई पल पल तरसेगी
आशा बनी गोपिका फिर भी भटकी है मथुरा गोकुल में
पर कान्हा के कर से बिखरा मिला उसे नवनीत नहीं था
रोष बिखरता है उपवन में अक्सर ही पतझड़ का आकर
रह जाती है लहर घाट पर अंतिम सीढ़ी से नीचे ही
गूँज, आरती में बजते शंखों की अर्थहीन रह जाती
साथ नहीं देती है दीपक की लौ उसका बनी सनेही
धूप पिरोकर आकांक्षा ने खिला दिये हैं गमलों में जो
सूर्यमुखी के फूलों का कोई भी पाटल पीत नहीं था
जलतरंग, सारंगी, वीणा, मांझी गीत और अलगोजे
डमरू.ढपली, तबला, तासे बजे ताल दे सरगम के संग
धुन सरोद की ले सितार ने रह रह छेड़ा पैंजनियों को
खिला नहीं मल्हारों वाला आकर लेकिन कोई मौसम
आरोहों में अवरोहों में झंकारें थीं, सुर सरगम थी
लेकिन फिर भी बजा शोर ही, वह कोई संगीत नहीं था
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4 comments:
वापस गुनगुना के देखिये . . .
ji namashkar,
aise geet to sirf aapke hi ho sakte hai ,bahot hi umda behtarin geet likha hai aapne...
saadar
arsh
बहुत बेहतरीन गीत है।बधाई।
जलतरंग, सारंगी, वीणा, मांझी गीत और अलगोजे
डमरू.ढपली, तबला, तासे बजे ताल दे सरगम के संग
धुन सरोद की ले सितार ने रह रह छेड़ा पैंजनियों को
खिला नहीं मल्हारों वाला आकर लेकिन कोई मौसम
"धूप पिरोकर आकांक्षा ने खिला दिये हैं गमलों में जो
सूर्यमुखी के फूलों का कोई भी पाटल पीत नहीं था"
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"जब आकांक्षा हाथ लगाये,
हर वस्तु स्वर्ण-वर्णी हो जाये
ये अनुबन्ध पूजा का उससे
फिर सूर्यमुखी ही क्यों रह जाये !
फिर से देखें गुरुवर जा कर
हर पाटल संगीतमयी था
रंग कौन कहता है उनका
पीत नहीं था ?"
--सादर, शार्दुला
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