कोई भी अंकुर न फ़ूटा

ढली सांझ से उगी भोर तक, बोते रहे आंख में आंसू
बीती रात. स्वप्न का लेकिन कोई भी अंकुर न फ़ूटा

तारों की झिलमिली छांह में पीड़ा के पैबन्द लगा कर
टूती तस्वीरों की किरचों को बरौनियों पर अटका कर
सांसों ने धड़कन के संग मिल पल पल सींचा देखा भाला
आशाओं का पुष्प गुच्छ् था पलकों पर ला रखा सजा कर

लेकिन सूखे का शिकार हो गई मिलन के पल की बदली
राहों से सम्बन्ध जुड़ सके , इससे पहले ही था टूटा

प्राची के पनघट पर बैठी रही प्रतीक्षा एक रात भर
बुनती रही किरण की डोरी अभिलाषा का सूत कात कर
सन्देशों के पाखी निकले नहीं नीड़ की सीमाओं से
रूठे रहे अनकही अधरों पर थी अटकी किसी बात पर

और धुन्ध के दावानल का यों विस्तार बढ़ा सहसा ही
एक एक कर लीन हो गया रँगा हाथ का हर इक बूटा

बूँद बूँद कर झरी चाँदनी घुली टपकते सन्नाटे में
अटका रहा चाँद सागर के तट पर खड़ा ज्वार-भाटे में
नीर भरी थाली,झीनी चूनर,चलनी, रेशम की जाली
सबका विक्रय हुआ एक ही साथ,हुआ लेकिन घाटे में

और एक व्यापारी जो था गया पास का सब खरीद कर
उसका नाम पता जो कुछ था वह सारा ही निकला झूठा

भर भर कलश उलीचे नभ की गंगाओं ने उगी प्यास में
परछाईं का विलय हो गया अँगड़ाई लेते उजास में
खंडित होकर ढहीं मूर्तियां खड़े हुए निस्तब्ध मौन की
रही सिमटती निधि सांसों की, क्षीण हो रहे उच्छवास में

रही पूछती प्रश्न निरन्तर लदी पीठ पर रीती गठरी
किस धड़कन ने आखिर अपना कोष स्वयं ही आकर लूटा

10 comments:

श्यामल सुमन said...

रही पूछती प्रश्न निरन्तर लदी पीठ पर रीती गठरी
किस धड़कन ने आखिर अपना कोष स्वयं ही आकर लूटा

हमेशा की तरह बेहतर प्रस्तुति।

एक स्वप्न था घर हो अपना कठिनाई से उसे बनाया।
जब रहने को आया उसमें न जाने क्यों वह घर छूटा।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Anonymous said...

ढली सांझ से उगी भोर तक, बोते रहे आंख में आंसू
बीती रात. स्वप्न का लेकिन कोई भी अंकुर न फ़ूटा

लेकिन सूखे का शिकार हो गई मिलन के पल की बदली
राहों से सम्बन्ध जुड़ सके , इससे पहले ही था टूटा

नीर भरी थाली,झीनी चूनर,चलनी, रेशम की जाली
सबका विक्रय हुआ एक ही साथ,हुआ लेकिन घाटे में

और एक व्यापारी जो था गया पास का सब खरीद कर
उसका नाम पता जो कुछ था वह सारा ही निकला झूठा

kyaa kahuun...mann kee baat

रंजू भाटिया said...

प्राची के पनघट पर बैठी रही प्रतीक्षा एक रात भर
बुनती रही किरण की डोरी अभिलाषा का सूत कात कर
सन्देशों के पाखी निकले नहीं नीड़ की सीमाओं से
रूठे रहे अनकही अधरों पर थी अटकी किसी बात पर

बहुत सुंदर ..

Anonymous said...

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नये परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है

admin said...

बहुत ही सुन्‍दर गीत है। बधाई।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...
This comment has been removed by the author.
Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

सुंदर गीत है राकेश जी। बार बार एक ही टिप्पणी अब क्या दूँ। आप जैसे गीत और कौन लिख सकता है, कविवर।

नीरज गोस्वामी said...

हमेशा की तरह...विलक्षण रचना...शब्द हीन हूँ...
नीरज

कंचन सिंह चौहान said...

लेकिन सूखे का शिकार हो गई मिलन के पल की बदली
राहों से सम्बन्ध जुड़ सके , इससे पहले ही था टूटा

kya baat hai...!

और एक व्यापारी जो था गया पास का सब खरीद कर
उसका नाम पता जो कुछ था वह सारा ही निकला झूठा

bahut khoob.... Manoshi ji ki bato se sahamat

Anonymous said...

और एक व्यापारी जो था गया पास का सब खरीद कर
उसका नाम पता जो कुछ था वह सारा ही निकला झूठा
phone try kiya tha? kya purane zamane ke aadmi ho, chithhiya hi bhejte rahte ho:)Phone number toh yellow pages mein mil jata, 3, 4, 5baar galat bhi mil jata toh kya hota, 6th time theek ho jata. aur suno consumer court ka naam suna hai? ya panjikaran ke dafter se aage nahi nikale ho abhi. Thoda sa hanste rahna chaahiye, nahin toh aankhein nam rahti hein aur chasma dundhla sa ho jata hai!

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