जब अंधेरे ही उगलते हैं दॄगों के दीप जलते
तो कहाँ संभावना है लेखनी से जन्म गीतों को मिलेगा
और जब ॠतुराज की डाली बसेरा बन गई है कीकरों का
तो कहाँ यौवन कभी कचनार कलियों का खिलेगा ?
देखने के वास्ते यों तो बगीचा खिल रहा दिखता सदा है
पर जड़ों को चूमती हैं दीमकें ये कौन जाना
शाख पर के मुस्कुराते पात पर टिक कर रुकीं अभ्यस्त नजरें
किन्तु क्या परछाईयों पर है लिखा रहता अजाना
ढूँढ़ती हैं भित्तिचित्रों पर टँगी जो कौड़ियों में कुछ निगाहें
आस है पहचान पाने की न जाने क्या यही बस सोचती हैं
द्वार पर आते हुए हैं संदली पथ से निकल कर जो हवाओं के झकोरे
चाहते रुकना मगर आदत उन्हें रुकने न देती टोकती है
होंठ का रह रह उगलना शब्द बेअर्थी , मगर इच्छा जगाना
एक पल के ही लिये कोई कभी तो छन्द में , इनको सिलेगा
शब्द ने विद्रोह की ठानी हुई है भावनाओं के नगर में
और कोई भी समन्वय की दिशा दिखती नहीं है दूर तक भी
पोटली अनुभूतियों की लग रहा है कोई आ फिर फिर कुतरता
छिन गई है शीश पर से एक जो थी छिरछिरी सी ओढ़नी भी
राह ने पाथेय के सब चिन्ह अपने आप में रक्खे छुपाकर
और इक विश्राम का पल भी डगर की धूल में ला भर दिया है
लग रहा है रात ने जितने रचे षड़यंत्र वे सारे सफ़ल हैं
रोशनी की छटपटाती हर किरण को पी रहा जलता दिया है
राह की बढ़ती विहंगमता अचानक बन गई आनन अहिन मां का लगा है
और पग है लड़खड़ाता काँपता डरता हुआ कैसे उठेगा
बढ़ रही इक अजनबियत के दायरे में घिर गई. सहमी हुई संभावनायें
छटपटाती, कसमसाती, लग रहा ज्यों हर घड़ी दम तोड़ती हैं
चाहना की चादरें उमड़े हुए कुछ बादलों से युद्ध करती जीर्ण होकर
एक पल की छांह के विश्वास का दामन निरन्तर छोड़ती हैं
टूट कर बिखरा गईं सौगन्ध जो थी बन्द आधी मुट्ठियों में
और जो जोड़े हुए सम्बन्ध थे वे आज मतलब खो गये है
थीं महत्वाकाँक्षायें सर उठातीं भोर की उंगली पकड़ कर
सर पटकतीं. जो सिरे को थामते वे हाथ असफ़ल हो गये हैं
रोष में भरकर खड़ा है आज पतझर पांव अंगद का बना सा वाटिका में
और लगता है यहां पर फूल अब कोई नहीं उग कर खिलेगा.
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7 comments:
kyon??
सोच रही हूँ,किस मन:स्थिति में इसे लिखा होगा आपने...आशु कवि।
शान्ति शन्ति !
आज के कठोर यथार्थ का मर्मस्पर्शी शब्दचित्र!
बहुत, बहुत, बहुत ख़ूब।
AAP HI KI KAVITA HAI, PAHCHAANA ??
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"चाहते जनमेजय हों बिना यत्न के
कोशिशों में समय को गँवाते रहे
अपनी जड़ से कटा एक पत्ता उड़ा
आस बादल सी अपने हॄदय में लिये
नापने नभ के विस्तार की ठान कर,
पंख टूटे हुए बाँह में भर लिये
पतझड़ों के थपेड़ों में उलझा हुआ
न इधर का रहा न उधर का रहा
शाख से फिर जुड़े साध मन में लिये
दर बदर ठोकरें खाता गिरता रहा
और इतिहास के पॄष्ठ से आ निकल
चित्र कुछ, व्यंग से मुस्कुराते रहे
प्रीत यों तो लपेटे थी भुजपाश में
प्रीत की आँख में प्रीत थी पर नहीं
चन्द ,मजबूरियाँ हाथ थी थामती
चूमती जिस तरह से पगों को जमीं
उंगलियों से लिपटती हुई उंगलियां
कीकरों से लतायें ज्यों लिपटी हुई
और विश्वास के सात पग की कसम
हो धराशायी राहों में बिखरी हुईं
शीर्ष वेदी पे आचार्य बैठे हुए
पुत्र कल्याण हो गुनगुनाते रहे"
Could not understand this part "आनन अहिन मां का लगा है".
What is the meaning of "अहिन मां "
और जब ॠतुराज की डाली बसेरा बन गई है कीकरों का
तो कहाँ यौवन कभी कचनार कलियों का खिलेगा ?
आप को पढता हूँ और गुणता हूँ...टिपण्णी क्या करूँ समझ नहीं पाता हूँ....आप की हर रचना विलक्षण है...और शब्द जैसे लेखनी पर ख़ुद बा ख़ुद आ बिराजते हैं...धन्य हैं आप वाह...
नीरज
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