चाहना तो है पुजू मैं देवता बन कर किसी दिन
चेतना पर कह रही है व्यक्ति बन कर आ प्रथम तू
आईना तो ज्ञात तुमको झूठ कह सकता नहीं है
ताल में जो रुक गया जल,धार बान सकता नहीं है
मंज़िलों के द्वार तक जाते कहां हैं चिन्ह पथ के
हो गया जड़ जो, कभी गतिमान हो सकता नहीं है
साध तो यह पल रही है रागिनी नूतन रचूँ मैं
चेतना पर कह रही है एक सरगम गा प्रथम तू
जो कि है क्षमता सिमटता सिर्फ़ उतना मुट्ठियों में
ज्ञान की सीमा सदा उलझाये रखती गुत्थियों में
चादरों से बढ़ गये जो बस वही तो पांव ठिठुरे
फ़ूट कब पाते कहो अंकुर बची जो थुड्डियों में
चाहना तो है सजूँ हर होंठ पर मैं गीत बनकर
चेतना पर कह रही है, शब्द बन कर आ प्रथम तू
बालुओं की नींव पर प्रासाद कितनी देर टिकते
और पत्थर भी कहां पर स्वर्ण के हैं भाव बिकते
ज्ञात हो असमर्थता पर चाँद को चाहें पकड़ना
इस तरह विक्षिप्त कितने सामने आ आज दिखते
चाहना तो है बनूँ मैं शिल्प का अद्भुत नमूना
चेतना पर कह रही है, चोट कोई खा प्रथम तू
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
12 comments:
चाहना तो है सजूँ हर होंठ पर मैं गीत बनकर
चेतना पर कह रही है, शब्द बन कर आ प्रथम तू
चाहना तो है बनूँ मैं शिल्प का अद्भुत नमूना
चेतना पर कह रही है, चोट कोई खा प्रथम तू
सुर्खरू होता है इंसान ठोकरें खाने के बाद ....
कविवर, हमेशा की तरह खूबसूरत. सुबह सुबह पढ़ लेता हूँ और दिन और दिन भर अच्छा लगता है.
चाहना तो है सजूँ हर होंठ पर मैं गीत बनकर
चेतना पर कह रही है, शब्द बन कर आ प्रथम तू
बहुत खूब बढ़िया लिखा है आपने
साध तो यह पल रही है रागिनी नूतन रचूँ मैं
चेतना पर कह रही है एक सरगम गा प्रथम तू
साधू...साधू...कविता क्या है पूरा जीवन दर्शन है....वाह...कमाल है राकेश जी...माँ सरस्वती सदा आप पर यूँ ही मेहरबान रहे...
नीरज
बालुओं की नींव पर प्रासाद कितनी देर टिकते
और पत्थर भी कहां पर स्वर्ण के हैं भाव बिकते
ज्ञात हो असमर्थता पर चाँद को चाहें पकड़ना
इस तरह विक्षिप्त कितने सामने आ आज दिखते........wah! bahut hi achchee kavita hai--gahari soch hai.
चाहना तो है पुजू मैं देवता बन कर किसी दिन
चेतना पर कह रही है व्यक्ति बन कर आ प्रथम तू
चाहना तो है बनूँ मैं शिल्प का अद्भुत नमूना
चेतना पर कह रही है, चोट कोई खा प्रथम तू
kya kahu.n....fir vahi shabdalpata ki samasya
बहुत बढिया !
बहुत सुंदर !
अति सुन्दर, भाई जी. बहुत खूब!!
बहुत ही सुन्दर। शिल्प के अद्भुत नमूने तो आप पहले से ही हैं उस पर इतने उदात्त भाव। सोने में सुहागा।
जो कि है क्षमता सिमटता सिर्फ़ उतना मुट्ठियों में
ज्ञान की सीमा सदा उलझाये रखती गुत्थियों में
चादरों से बढ़ गये जो बस वही तो पांव ठिठुरे
फ़ूट कब पाते कहो अंकुर बची जो थुड्डियों में
..........
अतिसुन्दर......अद्भुद........और क्या कहूँ......
the last line is just out of the world
Post a Comment