शब्द छिन गये
आज समय ने चलते चलते कुछ ऐसे करवट बदली है
खेल रहे थे जो अधरों पर मेरे, सारे शब्द छिन गये
इन्द्र धनुष पर बैठ खींचता रहता है जो नित तस्वीरें
बुनता वह रेशम के धागे, वही नाता है जंज़ीरें
अपने इंगित से करता है संयम काल चक्र की गति का
कभी रंग भरता निर्जन में, कभी मिटाता खिंची लकीरें
साहूकार! लिये बैठा है खुली बही की पुस्तक अपनी
और सभी बारी बारी से उसे चुकाते हुए रिन गये
कब कहार निर्धारित करता कितनी दूर चले ले डोली
कब देहरी या आंगन रँगते खुद ही द्वारे पर रांगोली
कठपुतली की हर थिरकन का होता कोई और नियंत्रक
कब याचक को पता रहेगी रिक्त, या भरे उसकी झोली
जो बटोर लेता था अक्सर तिनके खंडित अभिलाषा के
वही धैर्य अब प्रश्न पूछता रहता मुझसे हर पल छिन है
यों लगता है चित्रकथायें आज हुई सारी संजीवित
अंधियारों ने बिखर बिखर कर, सारे पंथ किये हैं दीपित
कलतक जो विस्तार कल्पना का नभ के भी पार हुआ था
कटु यथार्थ से मिला आज तो, हुआ एक मुट्ठी में सीमित
कल तक जो असंख्य पल अपने थ सागर तट की सिकता से
बँधे हाथ में आज नियति के, एक एक कर सभी गिन गये
खेल रहे थे जो अधरों पर मेरे, सारे शब्द छिन गये
इन्द्र धनुष पर बैठ खींचता रहता है जो नित तस्वीरें
बुनता वह रेशम के धागे, वही नाता है जंज़ीरें
अपने इंगित से करता है संयम काल चक्र की गति का
कभी रंग भरता निर्जन में, कभी मिटाता खिंची लकीरें
साहूकार! लिये बैठा है खुली बही की पुस्तक अपनी
और सभी बारी बारी से उसे चुकाते हुए रिन गये
कब कहार निर्धारित करता कितनी दूर चले ले डोली
कब देहरी या आंगन रँगते खुद ही द्वारे पर रांगोली
कठपुतली की हर थिरकन का होता कोई और नियंत्रक
कब याचक को पता रहेगी रिक्त, या भरे उसकी झोली
जो बटोर लेता था अक्सर तिनके खंडित अभिलाषा के
वही धैर्य अब प्रश्न पूछता रहता मुझसे हर पल छिन है
यों लगता है चित्रकथायें आज हुई सारी संजीवित
अंधियारों ने बिखर बिखर कर, सारे पंथ किये हैं दीपित
कलतक जो विस्तार कल्पना का नभ के भी पार हुआ था
कटु यथार्थ से मिला आज तो, हुआ एक मुट्ठी में सीमित
कल तक जो असंख्य पल अपने थ सागर तट की सिकता से
बँधे हाथ में आज नियति के, एक एक कर सभी गिन गये
8 comments:
आपके शब्द कभी नहीं छिन सकते.कुछ ऐसे ही भाव आपकी किसी और कविता में भी पढ़े थे.
क्या बात है सर जी. कमाल - भाषा, भाव .... सब कुछ.
अच्छी लगी रचना।
राकेश जी
साहूकार! लिये बैठा है खुली बही की पुस्तक अपनी
और सभी बारी बारी से उसे चुकाते हुए रिन गये
ऐसे शब्दों के धनि के शब्द कभी नहीं छिन सकते...बहुत खूब लिखा है आपने. पूर्ण तृप्ति होती है आप की रचनाएँ पढ़ के.
नीरज
आपके शब्द,आपकी कल्पना ,आपकी कविता...सब लाजवाब हैं
बहुत सुन्दर रचना।
यों लगता है चित्रकथायें आज हुई सारी संजीवित
अंधियारों ने बिखर बिखर कर, सारे पंथ किये हैं दीपित
कलतक जो विस्तार कल्पना का नभ के भी पार हुआ था
कटु यथार्थ से मिला आज तो, हुआ एक मुट्ठी में सीमित
कठपुतली की हर थिरकन का होता कोई और नियंत्रक
कब याचक को पता रहेगी रिक्त, या भरे उसकी झोली
यह पंक्तियाँ बहुत कुछ कह रही है ..शब्द गुम हो जाते हैं कभी कभी ..तब मौन की अपनी ही भाषा होती है ..बहुत सुंदर लगी आपकी यह रचना मुझे ..:)
ओह!
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