सांझ ढलने लगी और बढ़ने लगी
ढेर एकाकियत जब मेरे कक्ष में
सैंकड़ों चित्र आकर उमड़ने लगे
सात रंगों में रँगकर मेरे अक्ष में
पीठ अपनी तने से सटा, नीम की
छांह में बैठ पढ़ते किताबें कभी
तो क्भी दोपहर की पकड़ चूनरी
गीत बादल के संग गुनगुनाते हुए
वाटिका में लिये टोकरी फूले की
अर्चना के लिये पुष्प चुनते हुए
तो कभी बैठ मनिहारियों के निकट
चूड़ियों से कलाई सजाते हुए
सहसा जागे हुए, याद की नींद से
भाव भरने लगे कुछ नये, वक्ष में
चित्र इक गुलमोहर से सजी पगतली
कुन्तलों में मदन आ गमकता हुआ
औ’ कपोलों को आरक्त करता हुआ
स्वप्न कोई फ़िसल नैन की कोर से
बन के अलगोजा दांतों से बातें करे
एक चंचल कलम, उंगलियों में उलझ
कल्पना लेके अंगड़ाई उड़ती हुई
बँध उमंगों भरी रेशमी डोर से
एक मोहक लजीली लिये स्मित अधर
रिक्त करते हैं संचय कलादक्ष में
षोडशी सांझ की चौखटों को पकड़
है प्रतीक्षा बनी एक चातक विहग
स्वाति के मेघ घिरते नहीं नित्य हैं
प्यास के किन्तु कीकर हुए सावनी
ओढ़नी में समेटे निशा ले गई
आस का कोई सपना बढ़ा जो इधर
भोर से दोपहर तक, सभी हो गईं
एक बोझिल उदासी की अनुगामिनी
काल के चक्र से जितने पल हैं मिले
चार-छह भी नहीं हैं मेरे पक्ष में
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4 comments:
षोडशी सांझ की चौखटों को पकड़
है प्रतीक्षा बनी एक चातक विहग
स्वाति के मेघ घिरते नहीं नित्य हैं
प्यास के किन्तु कीकर हुए सावनी
वाह, बहुत खूब.
स्वागत है आपका इस बेहतरीन गीत के साथ एक सप्ताह के व्यस्त कार्यक्रमों के बाद. अब जारी हो जायें, शुभकामनायें. :)
राकेश जी,
आप का लिखा जब-भी पढ़ता हूँ मन सहज ही भाव पूर्ण हो जाता है…।
बहुत सुंदर रचना है…।
राकेश जी बहुत सुन्दर गीत है यादों में खो जाने को जी चाहता है...पल-पल याद दिलाता है बीते दिनो की...
सुन्दर अभिव्यक्ती के लिये बधाई
शानू
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